Thursday, December 29, 2011

वो कब और कहां गई !

कल रात
न मैं सो पाया
न मैं रो पाया
मुझे अजीब-सा लगा
उसके दुनिया से
चले जाने की
खबर सुनकर
जिससे न की थी
मैने कभी कोई बात
बस जब से उसे देखा
वो कोमा में ही थी
ढाई साल से बंद
अस्‍पताल के एक कोने में -
गाड़ी की पिछली सीट से
सिर के बल
सड़क पर गिरने के बाद
किसी को बचाने की कोशिश में
ड्राइवर का संतुलन बिगड़ने से हुए
मामूली हादसे में
जो मौत का एक
बहाना और कारण बन गया ।

मैं जब भी अस्‍पताल जाता था
उसके कमरें में जरूर बैठता था
थोड़ी देर के लिए -
जो मुझको लगता था
सेघर्ष और पूजा स्‍थल की तरह
जहां जिंदगी और मौत जूझ रहीं थी ,
रोज की दौड़- धूप और उठा-पटक से
दूरस्‍थ होकर
मैं कुछ सोचने को
मजबूर हो जाता था वहां
जीवन की टेढी-मेढ़ी राहों का
गहरा एहसास करते हुए ।
कोई इलाज नहीं बचा था
डाक्‍टर कहते थे
क्‍भी भी होश आ सकता है उसे -
बस इसी उम्‍मीद पर
घडी की टिकटिक सुनते हुए
अंतहीन इंतजार किये जाते थे
घर वाले सब लोग ।
वो ढाई साल से घर नहीं आई
अस्‍पताल का कमरा ही
उसका मायका बन गया था
उसे विदा होना पड़ा यहीं से
कल रात
सच्‍ची ससुराल के लिए ।

Monday, December 26, 2011

उसकी याद में

राधिके ।
तू गयी कहॉं !
पता नहीं शायद तुझे भी
खो गयी है तू
जीवन की उलझनों में
उलझा के मुझे
अपनी याद में
खोने के लिए।
दिवस-रात्रि हर क्षण
मेरे साथ है -
तेरा ही स्‍वप्‍न
तेरा वो मुस्‍कराता चेहरा
तेरी वो मृदुल बातें
तेरी वो चंचल ऑंखें
लोग कहते हैं
पागल हो गया हूँ मैं ,
जानते नहीं वो
इस पागलपन में ही ज्ञान है
यही प्रेम का पागलखाना ही
वास्‍तविक विद्यालय है ।
न तो अँधेरा ही है
न ही प्रकाश है
यह शीत ऋतु की
उस कुहरे-भरी प्रभात जैसा है
जब सूर्य की एक किरण
बादलों से जूझती है
अपने अस्तित्‍व बचाने को
और दुनिया में
रौशनी फैलाने को !
अनिश्चिततओं से घिरे हुए
इस जीवनमय गगन में
जागृत है आशा फिर भी
आशा के साथ ,
कभी सोचता हूँ
यह नन्‍हीं आशा ही
जीवन का आधार है
और ईश्‍वर की
इस अलबेली सृष्टि का
मूल, भाव व सार है।
बस इतनी ही विनती है
हे ईश्‍वर
जगाए रखना
इस प्रेरणा-स्रोत को ,
इस ज्‍योति-पुँज को
ताकि बजाता रहूँ
मैं अपनी बांसुरी
तुझमें विलीन होने तक।

Wednesday, December 7, 2011

भोर का राग

चाँदनी अलसाई तारे थके-थके
अम्‍बर रंग बदलता मादक पवन बहे
चीड़ नीरवता को मुर्गा बाँग भरे
गंगा के तट पर ऋषि ध्यान धरे
मधुकर लीन रहा गुंजन में
उषा बिखराती लाली मधुबन में।

फुदकती गिलहरी इधर-उधर
नाचता पंख फैलाये मोर
कोयल गाती अपना गीत
कूदते वानर चारों ओर
मधुकर लीन रहा गुंजन में
उषा बिखराती लाली मधुबन में।

चमकती ओस की बूँद
हरी घास के कण पे
धड़कते शांत पेड़ के पत्ते
बहती हवा शनैः-शनैः
मधुकर लीन रहा गुंजन में
उषा बिखराती लाली मधुबन में।

तोड़ती प्‍यारी पल्लवी पुष्प
गूँथती बालों में माला
घंटियाँ बजती मंदिर में
नहाती घाट पर बाला
मधुकर लीन रहा गुंजन में
उषा बिखराती लाली मधुबन में।

आई जीवन की नई सुबह
नहीं किसी को भी फुरसत
विचरण करने को नभ में
हुए विहग घर से रूख्‍सत
मधुकर लीन रहा गुंजन में
उषा बिखराती लाली मधुबन में।

चंदा जाता सूरज आता
वक्‍त चलता ही जाता
काश, रहा होता मन - जैसे
मधुकर लीन रहा गुंजन में
काश, बिखराता आनंद हृदय - जैसे
उषा बिखराती लाली मधुबन में।

Monday, November 28, 2011

बदलाव की तकलीफ

काटता है
पहनने पर
नया जूता
पैरों को ,
महसूस होता हे
अजीब-सा
चलने में ।
फिर…..
पड़ जाती है
आदत
कुछ दिनों मे
इतनी कि
उन्‍हें उतारने का
मन नहीं करता !
एडजस्‍ट हो जाता है
थोड़ा पैर - थोड़ा जूता
सेट करते हुए चाल
फटने की हद तक
घिसते हैं
पुराने जूतों को ,
वो हमें चलातें है
हम उन्‍हें चलातें हैं !

Thursday, November 17, 2011

ग्‍यारह बजे की रस्‍म

लेते हैं हम
शपथ
हर साल
खास दिन पर
दो मिनट सीधे खड़े होकर
दोहराते हुए
कागज पर लिखे शब्‍द -
ईमानदार रहने की
सच बोलने की
शांति-सदभाव की
निडर रहने की
निष्‍पक्ष रहने की -
फिर……..
भूल जाते है
ऐन वक्‍त
इम्‍तहान आने पर
सब कसमें और वायदे
प्रैर्क्‍टीकलिटी की
देते हुए दुहाई ,
खुद को और खुदा को
धोखा देने का
बढिया और आसान
तरीका
मिल गया है
हमें ।

Monday, October 31, 2011

क्‍यू से क्‍वैशन

क्‍यू इतनी लंबी क्‍यूं है
क्‍यू में मैं क्‍यूं लगूं
काउंटर ज्‍यादा क्‍यूं नहीं हैं
कम्‍प्‍यूटर कम क्‍यूं हैं
लोग काम फुर्ती से क्‍यूं नहीं करते
प्रोपर सिस्‍टम क्‍यू नहीं बनता
टोकन डिस्‍प्‍ले क्‍यूं नही होता
इंतजार नहीं होता अब
आयेगा मेरा नम्‍बर कब !
क्‍यू में खुद खड़े होकर ही
अहसास होता है
सरकारी नियमों के
चक्रव्‍यूह में डलझे हुए
आम आदमी की
तकलीफ और दिक्‍कत का :
काम कहां होगा
काम कैसे होगा
काम कब होगा !


किसी को सब्र नहीं
उसूलों की कद्र नहीं
क्‍यू तोड़ने में
लोगो को आता है मजा
क्‍यूंकि नहीं मिलती उन्‍हें
इस गलती की सख्‍त सजा ,
बाइपास करने के लिए क्‍यू
कनैक्‍शन निकालते हैं
सेटिंग करते हैं
ऊपर से फोन कराते है
सिफारिश लगवाते हैं
एजेंट को ढूंढते है
बैक-डोर से अंदर जाते है
और फिर चढ़ाते हैं
तत्‍काली मेवा
सेवा की स्‍पीड
बढाने के लिए ।
सोचता हूं
ऐसा ही होता होगा
आगुंतकों के साथ
मेंरे ऑफिस मे भी ,
पब्लिक टायलेट की तरह
हर पब्लिक ऑफिस की
हालत बहुत गंदी है
सफाई बहुत जरूरी है
सवाल उठाना ही काफी नहीं
जवाब भी जरूरी है
जिम्‍मेदारी हम सबकी है
रिश्‍वत लेना भी गलत है
रिश्‍वत देना भी गलत है ।

Wednesday, August 24, 2011

अन्‍ना का सत्‍संग या सत्‍य का प्रयोग

देखकर अपनी आंखों से
सड़क पर उमड़े
जनसैलाब को
और सुनकर
क्रांति के स्‍वरों की गूंज
उठने लगा हे
मेरे भीतर भी ज्‍वार
उस मुहिम में
शामिल होने का
जिसे शुरू किया है
एक बूढे ने
छोड़कर खानापीना
व्‍यवस्‍था को बदलने की
जिद करते हुए ।

क्‍या और कब हासिल होगा
मुझे नहीं मालूम
बस :
उम्‍मीद जग गई है
आग सुलग गई है
मशाल जल गई है
मेरे दिल में :
यह जताने के लिए कि
मैं मुर्दा नहीं हूं
और
दे सकता हूं
कुछ तो
आहुति के तौर पर
इस सामाजिक महायज्ञ में ।

Thursday, August 4, 2011

दीपक तले अंधेरा

सुनकर खबर
अपने गांव के बगल में
बिजलीघर के बनने की
बहुत खुश हुए थे हम सब
इस उम्‍मीद में कि
जगमगाएगा
हमारा गांव भी ,
छिन गई हमसे
खेती की जमीन
बन गए हम मजदूर
नौकरी करने को मजबूर ,
बिजली पहले भी नहीं आती थी
बिजली आज भी नहीं आती है
पर पड़ोस में
बिजलीघर-कॉलोनी की
रोज रात की दिवाली
उदास कर देती है मुझे
लालटेन की रोशनी में
पढ़ने के
जख्‍म पर
नमक छिड़कते हुए ।

Thursday, July 21, 2011

अंतिम संस्‍कार

मेरी लाश अभी आयी है
शमशान घाट पर
एक लाश और आ रही है
दूजी अधजली है
तीसरी की राख ठंडी पड़ चुकी है
तैयारियां चल रही हैं
उस इंसानी जिस्‍म को फूँकने की-
जिसे हम अब तक रिश्‍तों से बुलाते थे
सभी इंतजार में हैं
अर्थी को चिता पर रखते
लकडियों से उस ढांचे को ढांकते
जिसमें कोई प्राण नहीं है अब
बदबू से बचाने को
सामग्री~घी~चंदन डालते
आग लगा देंगे हड्डियों के शरीर को
सर्व-धर्म समभाव के शमशान घाट पर
जहॉं एक ओंकार , हे राम और ओम~शांति लिखा है
क्‍या सत्‍य है ?
शायद कुछ भी नहीं
बस यूँ ही लोग खुद को भुलाने के लिए
मंत्र दोहराते हैं जनाजे की भीड में
नारे-स्‍लोगन की तरह-
'' राम नाम सत्‍य है ''
सत्‍य ?
वो था जो नाम से जाना जाता था
या यह है जिसे हम लाश कहते हैं उसकी
राम कहां से आ गया बीच में-
न कभी देखा, न सुना- उसे
और सब शव-यात्राओं में उसी को सत्‍य कहते हैं
मौत एक उत्‍सव है
अवसर- जहॉं हो जाती है मुलाकात
सब रिश्‍तेदारों से
जिन्‍हें वैसे तो फुरसत नहीं मिलती।
कोई पूछता है – क्‍या हुआ, कब हुआ
बताते-बताते थक चुका हूँ
मन होता है – कैसेट में रिकार्ड कर
उसको चला दिया करूँ
या उनसे सवाल करूँ-
'' तुम कर क्‍या सकते थे
या तुम कर क्‍या सकते हो। '"
औपचारिकताओं के इस काल में
मौत भी एक सूचना रह गई है
और वो अगर दूर कहीं हो
तो अखबार और टी.वी. में
गिनती~संख्‍या ही बस।
कितने मरे , कितने दबे.......
लो एक लाश और आ गई ।
गुजरती हुई लाश को देखकर
लोग किसको मत्‍था टेकते हैं -
परमात्‍मा को,
उस आत्‍मा को,
खुद की मौत के भविष्‍य को
या डर लगता है उन्‍हें
अपनी लाश का ।
लाशों की भी स्‍टेजज हैं :
नहा~धोकर तैयार होने वाली लाश
अर्थी से उतरती हुई लाश
चिता पर लेटी हुई लाश
लकडियों से दबी लाश
अधजली लाश
अंगारे छिटकाती लाश
राख में बदली हुई लाश
हडिडयां चुनी जा रही लाश।
खून, दूध, आंसू और
लाश की राख :
सब एक-से होते हैं -
हिन्‍दू के और मुसलमान के
आदमी के और औरत के
शहरी और गंवार वाले के-
बस उनकी मात्रा ज्‍यादा या कम होती है
उम्र, शरीर के अनुसार
किसकी शव-यात्रा में
कितनी जमात और बारात
इसका भी अभिमान
कौन किस अस्‍पताल में मरा
और कितना खर्च करने के बाद
(या आमदनी उन डाक्‍टरों को कराने के बाद )
कितनी बड़ी बीमारी से हुई मौत
सब खड़े हैं
लाश के इर्द-गिर्द
सुरक्षा के लिए
या साक्षी : निश्चित करते गवाह बने हुए
कि वह चला गया, जल गया
पूरी व्‍यवस्‍था है -
राख में कोई प्राण न रह जाए
भूत को फिर से उठाने के लिए ।
सेवा करते बच्‍चे और बूढ़े
लक‍ड़ी लगाते लाश में
कंधा देते अर्थी को
दक्षिणा दे रहा है सिरघुटा बेटा
चुटैया वाले पंडित को
जिसने सौंप दिया उसकी मॉं के
निर्जीव शरीर को आग में
: आखिर किसका पुण्‍य ?
और डोम के बारे मे-
उनका पेशा है
लाशें जलाना
जैसे कसाई का जानवर काटना
जैसे वेश्‍या का शरीर बेचना
संवेदना सभी की होती है
पेट की भूख ही सच होती है
सिर्फ मौत ही पक्‍का सच होती है ।

प्रत्‍यक्ष को भी प्रमाण चाहिए

बन गया है बंदा
कागजों का पुलिंदा -
सिमट गई है
उसकी लाइफ
इक फाइल मे -
जिसमें लगे है
सर्टीफिकेट
बर्थ- जाति- करैक्‍टर-पढ़ाई के ,
पहचान है उसकी
आई - कार्ड, पासबुक और पासपोर्ट
जिन्‍हें कराना पड़ता है सत्‍यापित
सरकारी अफसरों से
जिंदा होने के सबूत के तौर पर
खुद की गवाही देने के लिए ,
जरूरी है
डैथ का सर्टीफिकेट भी
फाइल की क्‍लोजिंग के लिए
पर शुक्र है खुदा का
उसके लिए
खुद नहीं करनी पडती
मशक्‍कत
इंसान को ।

Monday, July 4, 2011

पसीने की कमाई

गर्मी के मौसम में
भून रही है वो
भुट्टे आंच पर
आंचल में सिमटे
अपने शिशु को
दूध पिलाते हुए,
करनी पड़ती है उसे
बहुत मशक्‍कत
क्‍योंकि
अब हो गए हें कम
देशी भुट्टे खरीदने वाले भी
पैकेट वाले रेडीमेड पॉप-कार्न
और अमरीकी स्‍वीट-कार्न के
बाजार मे ,
खुद भुन रही है वो
पेट की खातिर
जेठ की तपती दोपहर में ।

Friday, July 1, 2011

सीखना - सिखाना

नर्सरी स्‍कूल की
नई-नवेली मैडम
लिखवा रही थी
नन्‍हें बच्‍चों से
कर्सिव राइटिंग में
अंग्रेजी के अल्‍फाबेट्स
डांटती हुई झुंझलाकर
’ क्‍यूं नहीं घुमा पाते
लाइन डस तरह
जैसे मैं बताती हूँ ’
मन हुआ कहूँ
उस शिक्षिका को :
जरा तुम भी
लिखकर तो देखो
उर्दू के हिज्‍जे :
किसी के लिए
बाएं हाथ का खेल
दूजे को
दाएं हाथ का खेल भी
नहीं लगता है ।

गुजर चुके हम
जिन कक्षाओं और परीक्षाओं से
वो हमें आसान लगते है
दूसरों को समझाते हुए ,
पर बहुत मुश्किल होता है
कुछ भी नया सीखना
जो हमें नहीं आता
चाहे रोटी पकाना
चाहे कपड़े धोना
चाहे साइकिल चलाना
या फिर
बच्‍चों जैसा
सच्‍चा बनना ।

Friday, June 3, 2011

संघर्ष

सच के लिए वही मर सकते हैं
सच के लिए वही लड़ सकते हैं
सच के लिए वही अड़ सकते हैं
जो सच बोलते हैं , सच सुनते हैं
जो सच जानते हैं , सच जीते हैं
सत्‍य के लिए आग्रह तो जरूरी है
पूर्वाग्रहों से मुक्ति भी हमें पानी है
सियासती खेल मत बनाना वरना
प्रदर्शन बन कर रह जाऐगा धरना !

Wednesday, June 1, 2011

सच की तह तक

छीलते हुए
प्‍याज की परतें
आ जाते हैं
आंखों में आंसू
धुंधलाते हुए उनको
कुछ देर के लिए
फिर पैनी हो जाती है
हमारी नजर
कचरा निकल जाने पर ,
खुद के केंद्र तक
पहुँचने के लिए भी
आवरण की परतों को
धीरे-धीरे ही सही
हटाना जरूरी है ।

Wednesday, April 13, 2011

मन चंगा तो कठौती गंगा

करते नहीं कद्र अपने माता- पिता की / वृद्धाश्रम मे समाजसेवा करने जाते हैं / रखते हैं मेड-सर्वेंट अपने घर पर / गुरूद्वारे का फर्श रोज सुबह धोते हैं / जानते हैं अफ्रीकन एनीमल्‍स के बारे में / अपनी गली के कुत्‍तों को कब देखते हैं / अपने रिश्‍तेदारों का जिन्‍हें पता नहीं / फिल्‍मी सितारों के वो बर्थडे मनाते हैं/ झांकते नहीं मन के अंदर कभी / मंदिर मे पूजा करने बेनागा जाते हैं / समझते हैं घ्ररवाली को नौकरानी / पड़ोसिन को महारानी मानते हैं जमाना ही कुछ ऐसा है ! हाथी तो यूँ ही बदनाम है बेचारा / इंसान के दांत ही है – दिखने के कुछ और , खाने के कुछ और !

Friday, April 8, 2011

अन्‍न - ना

संसद की ओर / जाने वाली सड़क पर / उमड़ पड़ा है / जन-सैलाब / समर्थन में / उसके / जो बैठ गया है / अनशन पर / परिवर्तन की उम्‍मीद में / उनके खिलाफ / जिनके पास हैं यंत्र / पुलिस और कोर्ट के / चलाने के लिए / लोक का तंत्र , मंत्र जपने से / बात नहीं बनेगी / पर चुप रहने से / क्‍या बात बनेगी ! इसलिए ही / संघर्ष जारी है और / बढ़ता ही जा रहा है / कारवां / हर दिन / गुजरने के साथ । अब - धुँधली ही सही / सरकार के / ग्रहों की स्थिति / कुछ नजर आ रही है , केंद्र को / परिधि पर बैठे / आम लोगों से / कुछ डर लगने लगा है ।

Monday, April 4, 2011

यहीं खुशी यहीं गम

आई हूँ अपने मायके / घर में दो कमरे हैं / बीच मे दीवार – / एक में कराह रहे हैं वो / जिनकी हूँ मैं बेटी / पिछले महीने हुए एक्‍सीडेंट के / असहय दर्द से / गर्म दूध पीते हुए / दूजे में चीख रही है वो / जो है मेरी बेटी / शादी के नौ बरस बाद / जन्‍मी पहली संतान / किलकारियां भरती हुई /दूध पीने के लिए , धूप और छांव की / अजीब जिंदगी / जी रही हूँ मैं / बेटी और मां का / संयुक्‍त फर्ज / निभाते हुए !

Friday, April 1, 2011

परदेश का फरेब

मैं उसके गॉव गया वहां सब कुछ है पत्‍नी – घर - खेत - भैंस बस नौकरी नहीं है जिसे करने आ गया वो शहर सब कुछ छोड़कर प्रगति के अवसर ढूंढता हुआ, रहता है अब अकेला इस शहर के किसी छोटे-से कोने में रिक्‍शा ढोते हुए जूझता हुआ स्‍वयं से और समय से , हकीकत न जानने वाले गांव के सीधे लोग मानते हैं उसे विकसित और बन जाता है वह प्रेरणा स्रोत बेराजगार युवाओं के लिए । मै कनाडा तो नहीं गया पर लगा सका कुछ अनुमान फौरेन- माइग्रेशन का गांव के इस टूर से ।

Thursday, March 24, 2011

नेशनल गेम

कैच हुए
मैच में
सब चिपके टीवी से
सिक्‍स हुआ फिक्‍स ,
वो खेल रहे हैं
हम देख रहे हैं
आज फाइनल है
सब कुछ बंद है :
दफ्तर - दुकान - रिक्‍शे
देशप्रेम का जुनून है,
लोग कह रहे हैं
इंडिया आज जीतेगा
मैं कहता हूँ
भारत आज नहीं जीतेगा
इससे क्‍या मैं
देशद्रोही साबित हो जाता हूँ ?
जो बेहतर खेलेगा वो जीतेगा ,
खेल तो खेल है
जिंदगी भी वही जीतेगा
जो बेहतर जीयेगा ।

Tuesday, March 22, 2011

प्रभु ! आओ हमारी रक्षा करो

गरीब ब्राहृमण सुदामा और
अमीर गोपाल कृष्‍ण
पढ़ते थे
एक ही स्‍कूली- आश्रम में
कृष्‍ण ने रिजर्वेशन नहीं मांगा
वरन मदद की
अपने गरीब दोस्‍त की
उनमें कोई लड़ाई न थी
न ही वो लिखते थे सरनेम
शर्मा-यादव सरीखे,
अगड़े-पिछड़े के चक्‍कर में
अगर मिल जाता आरक्षण
उस वक्‍त
गरीब को
तो आज सारे ब्राहृमण भी
सुदामा रख लेते उपनाम
शर्मा की जगह
क्‍योंकि आज
सरकारी नौकरियां हैं केक
और हिस्‍से का परसेन्‍ट
तय कर रही है
जन्‍म - वंशावली ।

Thursday, March 17, 2011

जागते रहो

देखकर मेरी शक्‍ल
सड़क पर
नहीं पुकारा जाता मुझे
नाम से
हर कोई कहता है:
‘ बहादुर जरा इधर सुनो ‘

सब सोतें हैं
खर्राटे लेते हुए
मैं जागता हूँ
थामे हुए
इक हाथ में डंडा
दूजे में टार्च ।

फक्र है मुझे
अपनी बहादुर कौम पर
करती है जो चौकीदारी
बैंक की , दुकानों की
कॉलोनी और मकानों की ।

बस होती है तकलीफ मुझे
जब बुलाते हैं नेपाली कहकर
मेरे मालिक
इतने सालों तक
खिदमत करने के बावजूद
उनके देश में ,
और करते हैं पहला शक वो
मुझ पर
कोई चोरी हो जाने के बाद !

अब कोई चारा नहीं मेरे पास
सौंपा है दुनिया के रखवाले ने
जिम्‍मा रखवाली का , मुझको
निभाना है उसे खुशी-खुशी
ताउम्र गश्‍त लगाते हुए ।

Tuesday, March 15, 2011

हैबिट

पता है मुझे
सुबह जल्‍दी उठना
फायदेमंद है
सेहत के लिए
पर मैं ऐसा
कर नहीं पाता ,
पता है मुझे
देर रात जागना
नुकसानमंद है
सेहत के लिए
पर टीवी देखना
छोड़ नहीं पाता ।

रोज सोचता हूँ
आज आखिरी दफा है
अगली रात आती है
पिछली बात दुहराती है
पर क्‍या इतना कम है कि
मैं जानता हूँ
दुर्योधन की तरह :
गलत क्‍या है !
सही क्‍या है !

और
महाभारत
को लिए
मन के भीतर
जिये जाता हूँ
इसी उम्‍मीद में :
आदत कभी तो बदलेगी :
शराब पीने की
झूठ कहने की !

Monday, March 14, 2011

धरती कांप उठी

कुदरत ने बरपाया : अजब कहर
मीडिया ने पकड़ ली ताजा खबर
रीयलटी-शो दिखाकर
हादसे का
दूरस्थ लोगों को
संवेदित करने के लिए नहीं
ऑरिजनल वीडियो फोटो
बेचने के लिए ।

होंगीं अब डांस कन्‍सर्ट
करते हुए याद
तबाही के तांडव को ,
चैरिटी फंड
जुटाने के लिए ,
एनजीओ को
सेवा करने का
मौका मिल गया ।

पता चल गए
कम्‍पटीशन की तैयारियों मे
लगे पढाकुओं को
जीके के
कुछ और संभावित सवाल :
रिक्‍टर स्‍केल क्‍या है ?
सुनामी कब आयी थी ?
नक्‍शे से मिट चुके शहर ?
आग में कौन-सी गैस थी ?

सच !
हादसा वही याद रहता है हमें
जिसमें बिछुड़ा हो कोई अपना ।

Thursday, March 10, 2011

जेनरेशन गैप

जब छोटा था वो
उसे चूहों से
बहुत डर लगता था ,
भागते-चीखते हुए
उस नन्‍हें बच्चे को
मै समझाता था :
' कुछ नहीं होगा बेटा '

अब हो गया हे
वह बड़ा
मैं बूढ़ा ,
आज
खडे़ होकर
कम्‍प्‍यूटर के सामने
जब चलाया मैंने
माउस को
तो बेटा चीखा जोर से :
' इस मत छुओ
आप कुछ नहीं समझते
सब बिगड़ जाएगा '


सच ही तो कहा
उस इंजीनियर बेटे ने
यह बेजान और
तकनीकी उपकरण
मेरे जमाने का
मूषक थोड़े ही है
जिससे मुझ जैसे
हिन्‍दी बोलने-लिखने वाले और
डिजिटली-अनपढ़ इंसान को
डरना नहीं चाहिए ।

Wednesday, March 9, 2011

रिश्‍तों का चक्‍कर

मैं चाहता हूँ उसको
जो किसी और को चाहती है
जिसको वह चाहती है
वो किसी और को चाहता है ,
जो मिलता है
वो हमें पसंद नहीं
जो पसंद है
वो हमें मिलता नहीं
और मिल भी जाये अगर
तो पसंद बदल जाती है ,
उम्‍मीदो व खुशफहमियों के
सहारे- किनारे
समझौते करते हुए
तलाश और भटकाव में
जिंदगी यूँ ही गुजर जाती है !

Monday, March 7, 2011

अंत के इंतजार में

मेरी जिंदा लाश को देखकर
तुम्‍हें चाहे होता हो फक्र
अपनी तकनीकी तरक्‍की पर
मुझे तो बेचैनी ही होती है
ड्रिप , सिरिंज और थैलियां देखकर ,
वैसे मै भीष्‍म तो नहीं
न ही तुम भगवान हो
पर त्रिशंकु की तरह
मेरी जिंदगी को मत लटकाओ
इलाज बहुत हो चुका
बस
अब :
मुझे इच्‍छा मृत्‍यु का वर दो :
वेंटीलेटर की बाण-शैय्या से
अपनी मुक्ति के लिए
रिश्‍तेदारों का दर्द
थोड़ा कम करने के लिय
मैं तुमसे भीख मॉंगता हूँ !
वायदा है मेरा
तुम्‍हें नहीं होगा
गलत इस्‍तेमाल वरदान का
नहीं कराऊंगा
मैं यमराज को इंतजार ।

Tuesday, February 22, 2011

सक्रियता

जरूरी है
किताबें पढना
जानने के लिए
लिखने का ढंग
पर सीखने के लिए तो
खुद को ही
लिखना पड़ेगा ,
वाह-वाह करते हुए
तालियां बजाने में
आनंद तो मिलता है
पर अपनी घुटी भांग
पीने का मजा ही
कुछ और है ,
टीवी पर
कलकत्‍ता मे खेले जा रहे
क्रिकेट मैच
देखने से
कहीं बेहतर है
अपनी गली में
क्रिकेट मैच खेलना ।

Friday, February 18, 2011

कौन बनेगा अरबपति !

अरब को अंग्रेजी में बिलियन कहते हैं
उसमें 1 के आगे नौ जीरो होते हैं
लगभग इतनी ही
हमारे देश की जनसंख्‍या है ,
भारतमाता के एक बेटे के पास
न जाने
क्‍‍या हुनर है
वह आज मालिक है
29 बिलियन डॉलर का
अखबार की इक रिपोर्ट के मुताबिक ।

मुकेश अंबानी वाकई अरबों का पति है !

मर जाए अगर वह आज और
उसकी दौलत को
बांट दिया जाए
सबमें बराबर , तो
सरकारी योजना की
विधवा पेंशन से
ज्‍यादा ही पड़ेगी
पर-कैपिटा राशि ।

मीडिया तो मुनीम है
फ्रंट पेज पर छापकर
इन लुटेरों की खबरें
उन्‍हें महामंडित करता है
जो बपौती और दलाली को
बेशर्मी से भुना रहे हैं ।

गरीबी का कारण ज्‍यादा पॉपुलेशन नहीं है
गरीबी का कारण चंद अमीरों की लूट है !

Thursday, February 17, 2011

सिस्‍टम बड़ा है व्‍यक्ति से

इंदिरा जी जब गुजरीं
सन चौरासी में
तो लगा झटका
इंडिया को
पर सब संभल गया
जल्‍द ही
और
देश बढ़िया चल रहा है
इतने बरसों से ।

लोग आते हैं , लोग जाते है
दुनिया चलती रहती है
किसी के चले जाने से
दुनिया नहीं थमती है
फिर भी न जाने क्‍यूं
लगता है उनको डर
‘ मेरे जाने के बाद क्‍या होगा ’
उस सरकारी मशीन का
जिसका वह सिर्फ इक पुर्जा थे
और शेल्‍फ लाइफ गुजरने के बाद
उन्‍हें आज रिटायर कर दिया गया ।

कब्रिस्‍तान भरे पड़े हैं
इतिहास रचने वाले लोगों से
जिन्‍हें हम सलाम तो करते हैं
पर दुनिया का काम तो
आज, हम ही करते है ।

सूरज उगने पर ही मुर्गा बांग देता है
मुर्गे के बांग देने से सूरज नहीं उगता
इंदिरा इंडिया नहीं थी
इंडिया इंदिरा नहीं है ।

Thursday, February 10, 2011

भूखे पेट भजन न होई

मेरे पास आया न्‍यौता
पाठ-कीर्तन का
जिसमें लिखा था
मोटे-मोटे अक्षरों में
“ अटूट लंगर भी बरसेगा “ ।

डिशेज की वैरायटी का
लंगर
बन गया है अवसर
गेट-टुगेदर का
पार्टी की शक्‍ल
अख्तियार करता हुआ :
पहले आमंत्रित गैस्‍ट और
वीआईपी को
खिलाते हुए ।

पुण्‍य है
लंगर खिलाना या
डोलचियों में भरकर
ले जाना घर
अमीर लोगों का ?

हां ,
यह बात जरूर है
कीर्तन सुनने के बाद
उसके शब्‍दों का असर
चाहे रहे न रहे
पर चलती रहती है
चर्चा भक्‍तों मे
कई दिन तक
“ उसके पाठ में लंगर बड़ा टेस्‍टी था “ !

Wednesday, February 9, 2011

कारीगर की कीमत

रात के ग्‍यारह बजें थे
ठंड पड़ रही थी -
लाला जी
ढूंढते फिर रहे थे
रेलवे स्‍टेशन पर
कल्‍लू हलवाई को
जो गंदी बनियान पहने
कड़ाही मे जलेबियां
छानता रहता था
उनकी स्‍वीट शॉप पर
और आज शाम को
चला गया था रूठकर
तनख्‍वाह कम मिलने की
वजह से ।

लाला जी को भी
दुकान के मशहूर
सुबह के नाश्‍ते की
बिक्री की फिक्र ने
उस रात
सोने नहीं दिया होगा ।

Monday, February 7, 2011

मां शारदे !

मेरे मन की वीणा को
संगीत के स्‍वरों से भर दो
विवेकी बना बुद्वि को
उसे श्‍वेत हंस जैसी कर दो
किताबे पढ़ता रहूं
कविताएं लिखता रहूं
ज्ञान की ज्‍योति जगाकर
स्‍व का मुझे सार दो
वाणी से गाता रहूं
तेरे ही गुण
ऐसा मुझे वर दो
करता रहूं सेवा हंसते हुए
उत्‍साह और ऊर्जा से
मुझको भर दो ।

Friday, February 4, 2011

बसंत - मिलन

झील के किनारे
पार्क में
रंग-बिरंगे और नाजुक
फूलों के बीच
अमुआ की डाली वाले
झूले में बैठी
पीताम्‍बरी साड़ी पहने : कल्‍पना
दिन के तीसरे पहर की
गुनगुनी धूप मे
सुनहरी सरसों को निहारती
गुनगुना रही थी
कोई गीत ,
मानो कर रही हो
अनुरोध गगन में
चहलकदमी करते हुए
कौए से
अपने प्रीतम को
बुला लाने का ।

ट्रेन की सीटी बजे
काफी वक्‍त गुजर चुका
हो गई डदास
सोच में डूबी
‘ क्‍या नहीं आए साजन
इस गाड़ी से भी ! ’
अचानक
मूंद ली आंखें उसकी
किसी ने
पीछे से आकर ,
और यथार्थ की
हथेलियों के
कोमल स्‍पर्श ने
कल्‍पना के इंतजार का
बस-अंत कर दिया
प्रेम की प्रकृति से
सौंदर्य- सुगंध का रस
बिखराते हुए
सब दिशाओं में ।

Thursday, February 3, 2011

मत ललचाओ जी !

थाली में जो है
वो तो खा लो
पेट भर जाएगा
काहे हर स्‍टॉल पर
दौड़त- फिरत हो
प्‍लेट ले कर ,
जैसे कोई रिपोर्ट देनी हो
अपने घर जाकर
कैसा बना था
दावत का खाना
या फ्री के डिनर की
पूरी कसर निकालनी है ,
अरे भई !
तनिक सब्र करो
अगडम-बगड़म ठूंस कर
पेट को वेस्‍टबिन मत बनाओ
हाजमे का कुछ तो खयाल रखो ।

Wednesday, February 2, 2011

पशु-पक्षी और इंसान

कल झील के किनारे
घूमते हुए
बत्‍तखों को देख
मैं दार्शनिक हो गया :
क्‍या यही भोग योनियां हैं !
‘अपना दर्द किसी को बता नहीं सकते
अपने मन की किसी को कह नहीं सकते
भूख लगने पर मनपसंद खा नहीं सकते ‘

लोग तो बस आते हैं
घूमने-टहलने
पाप कार्न और आटे की गोलियां
डालकर चले जाते हैं ,
किसी ने कभी सोचा
उनका क्‍या खाने को जी चाहता है !

मोबाइल के कैमरे से
फोटो खींचकर
उनसे रिश्‍ता बनेगा क्‍या ?
जिनकी उम्र भी नहीं जानते हम
और न ही उनके नाम
बस कह देते हैं
पड़ोसी को :
‘ झील मे दस सुदर डक्‍स है
बच्‍चों को साथ लेकर आप भी देखने जाना ‘ !