झील के किनारे
पार्क में
रंग-बिरंगे और नाजुक
फूलों के बीच
अमुआ की डाली वाले
झूले में बैठी
पीताम्बरी साड़ी पहने : कल्पना
दिन के तीसरे पहर की
गुनगुनी धूप मे
सुनहरी सरसों को निहारती
गुनगुना रही थी
कोई गीत ,
मानो कर रही हो
अनुरोध गगन में
चहलकदमी करते हुए
कौए से
अपने प्रीतम को
बुला लाने का ।
ट्रेन की सीटी बजे
काफी वक्त गुजर चुका
हो गई डदास
सोच में डूबी
‘ क्या नहीं आए साजन
इस गाड़ी से भी ! ’
अचानक
मूंद ली आंखें उसकी
किसी ने
पीछे से आकर ,
और यथार्थ की
हथेलियों के
कोमल स्पर्श ने
कल्पना के इंतजार का
बस-अंत कर दिया
प्रेम की प्रकृति से
सौंदर्य- सुगंध का रस
बिखराते हुए
सब दिशाओं में ।
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