देखकर मेरी शक्ल
सड़क पर
नहीं पुकारा जाता मुझे
नाम से
हर कोई कहता है:
‘ बहादुर जरा इधर सुनो ‘
सब सोतें हैं
खर्राटे लेते हुए
मैं जागता हूँ
थामे हुए
इक हाथ में डंडा
दूजे में टार्च ।
फक्र है मुझे
अपनी बहादुर कौम पर
करती है जो चौकीदारी
बैंक की , दुकानों की
कॉलोनी और मकानों की ।
बस होती है तकलीफ मुझे
जब बुलाते हैं नेपाली कहकर
मेरे मालिक
इतने सालों तक
खिदमत करने के बावजूद
उनके देश में ,
और करते हैं पहला शक वो
मुझ पर
कोई चोरी हो जाने के बाद !
अब कोई चारा नहीं मेरे पास
सौंपा है दुनिया के रखवाले ने
जिम्मा रखवाली का , मुझको
निभाना है उसे खुशी-खुशी
ताउम्र गश्त लगाते हुए ।
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एक चौकीदार के मन की व्यथा को सही शब्द दिए हैं ....
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