Friday, March 30, 2012

न्‍याय के बारे में

1 ) कानून के हाथ छोटे हैं

कहा जाता है
फांसी के पक्ष में -
यह जरूरी है
कठोर सजा के तौर पर
दहशत फैलाने के लिए
कल के अपराधियों में ,
यकीन कर लूंगा मैं भी
इस दलील का
जब चढ़ जायेगा फांसी
किसी दिन , कोई इक
चीफ मिनिस्‍टर - शहर को दंगों में झुलसाने वाला
राजनेता - मस्जिद ढहाने वाली भीड़ को भड़काने वाला
अमीर व्‍यापारी - तंदूर में औरत को जिंदा जलाने वाला
सरकारी दलाल - वतन की हिफाजत को गिरवी रखने वाला
कालाकोटधारी जज - गलत और देरी से फैसला सुनाने वाला
पुलिसकर्मी - बेगुनाह को जेल में ठूंसने वाला
अफसर - रिश्‍वत में अपना जमीर बेचने वाला ,
पर अभी तो बहुत छोटा है
फांसी का फंदा
बड़े लोगों के गलों के लिए
जिनके पास है कुर्सी और पैसे की ताकत
जिरही वकीलों को रखने की
जो बाल की खाल निकालकर
या फिर गवाह को खरीदकर
केस खत्‍म करा देते हैं और
उन्‍हें बाइज्‍जत बरी करा देते हैं ,
फिलहाल तो
मैं फांसी की सजा के खिलाफ हूं
जो अक्‍सर दी जाती है
बेचारे बकरों को ही
बलि के तौर पर ।

2) ब्‍लैक - मेल

धरने पर बैठकर
शहर में बंद रखकर
रेल- सड़कें रोककर
वाहनों को आग लगाकर और
जूलूस की भीड़ से
माइक की आवाज मे
नारे बुलवाकर ,
वो करवाना चाहते हैं
अपनी मनमर्जी का फैसला
उनकी कलम से ,
जो इतने सहमे हुए हैं कि
फैक्‍टरी में हड़ताल की
धमकी से ही
डर जाते हैं ,
वो उन्‍हें झुकने को कहते हैं
जो लेट ही जाते हैं औंधे
पेट के बल
रीढ़ की टूटी हडृडी के भरोसे।

3) सूली और जहर से आगे

रस्‍सी भी तो अब असली नहीं मिलती
चाइना की प्‍लास्टिक वाली डोरी से
काम चलाना पड़ता है ,
फासी का तरीका भी बदलना चाहिए
टेक्‍नोलाजी के जमाने में
बम , रिवाल्‍वर और साइनाइड का
इस्‍तेमाल होना चाहिए ।

4) माई लॉर्ड

खुदा ने अपनी इमेज में आदमी को बनाया
आदमी ने खुद को समाज का जज बनाया
आदमी को सुनाता है फांसी की सजा आदमी ही
आदमी को चढा़ता है फांसी पर एक आदमी ही
आंख के बदले आंख निकालना - अगर सही होता
तो इतिहास की किताबों मे
बाल्‍मीकि और अंगुलिमाल का कोई जिक्र न होता ।

Saturday, March 24, 2012

चढ़ते सूरज को सलाम

जब वह स्‍कूल में पढ़ता था
तो रोज उसे डांट पड़ती थी
क्‍लास में ऊटपटांग सवाल पूछने के लिए
होमवर्क गलत- अधूरा करने के लिए
प्‍लेग्राउंड में ज्‍यादा वक्‍त बरबाद करने के लिए
उसे चेतावनी भी मिली
कम हाजिरी के लिए ,
इतने ना - लायक छात्र का
फोटो सुशोभित है अब
स्‍कूल के मुख्‍यद्वार पर
जिसे फांदकर
वह चला गया था
मैच खेलने
इक दोपहर और फिर मुड़कर
उसने कभी नहीं देखा
स्‍कूल का मुंह
जिसे उस पर है नाज
जो छाया है आज
मीडिया की सुर्खियों में
गोल्‍फ चैम्पियन बन कर ,
किंतु कहावत आज भी सुनाई देती है
स्‍कूल के गलियारों में -
” पढ़ोगे लिखागे बनोगे नवाब
खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब “

Friday, March 23, 2012

घर पर खड़े रहो दिन भर

गाड़ी खड़ी है
बंगले के अहाते में ,
साहब के बाहर आने का
लंबा इंतजार करते-करते
वह अब गया है :
चक्‍कर लगा लेता
हर पॉंच-दस मिनट बाद
बेचैन, थका, झुंझलाता
छोड़ कर जा भी नहीं सकता
कभी गाड़ी के अंदर जा बैठता
कैसेट पर पुराने गीत सुनता
बीड़ी फूँकता बीच-बीच में
गुटका खाता, पान चबाता
मोबाईल पर बतियाता
कभी गाड़ी का दरवाजा खोलता ,
कभी उसे बंद करता
जाने क्‍या सोचता होगा ...
कैद है वह
गाड़ी का चालक होने के बावजूद
वह गाड़ी ड्राइव करता है
और साहब ( व उनकी मैडम )
उसकी जिंदगी ड्राइव करते हैं,
कभी भी फोन घुमाकर बुला लेते हैं
उसे नहीं मालूम होता
कहॉं जाना है।
किसी दोस्‍त के घर पहुँचकर
खुद तो साहब गपशप और
मौज-मस्‍ती में
डूब जाते हैं
वह बाहर बैठा
इंतजार करता रहता है
कभी-कभार पूछ लेता है
पानी, चाय या नाश्‍ता
कोई घरवाला ।
मन तो होता होगा उसका
कभी गाड़ी लेकर भाग जाऊँ
या बीच में ही गाड़ी बंद कर
कह दूँ
अब आगे नहीं जा सकती
खराब हो गई
परंतु डरता भी है
झूठ बोलने से
धोखा देने से,
हायर्ड ड्राइवर है
फायर भी तो हो सकता है।
साहब, बाहर निकलकर
एक मिनट भी इंतजार नहीं
कर सकते-
वह चाहे घंटों
इंतजार करता रहे
बाहर निकलने वाले नखरैल
साहब का
मैडम साथ हों
फिर तो कहना ही क्‍या :
इंतजार भी लंबा
गुस्‍सा भी ज्‍यादा
और उसकी कैद भी कड़ी :
'' समय से नहीं आए..
इंतजार नहीं किया जाता...
पेट्रोल चुराते हो...
निकम्‍मे हो...''
यूँ तो हैं : वे साहब भी
अधीर, चोर, और निकम्‍मे
किन्‍तु थोड़ा बड़े दर्जे के।

Tuesday, March 20, 2012

दूर के ढोल

मैं पार्क में घूमने गया
दूर की घास हरी-भरी दिखाई दी
वहं पहुंचा तो वैसी नहीं थी
मन बैठने को नहीं हुआ
आगे की घास हरी-भरी लगी
यह सिलसिला चलता रहा
और वहीं बैठ गया अंतत:
हार थक कर मैं
जहां खड़ा था ,
खत्‍म हुआ इस तरह
मेरा वर्तुल भ्रमण -
मैं केंद्र से दूर
परिधि पर भटकता रहा
कस्‍तूरी की खोज में
हिरन बना हुआ 1
मरीचिकाएं
रेगिस्‍तान में ही नहीं होती
पूरी जिंदगी मे होती है
दूसरे की थाली में पड़ा खाना
ज्‍यादा और जायकेदार लगता है
पराये का दुख छोटा लगता है
पडोसी की बीबी सुंदर लगती है
वर्तमान से हमें घबराहट होती है
पिछली कक्षा आसान लगती है
अगली कक्षा का रोमांच होता है
अपनी आज की परीक्षा ही
हमें मुश्किल लगती है
जो नहीं है , रखता हे वो
उलझाए और बहलाए
हमारे मन को
ख्‍वाब और डर में
जिंदगी बीतती जाती है
वक्‍त गुजरता जाता है
हम चुकते जाते हैं
बाल सफेद होते जाते हैं
धूप में और छांव में ।

Friday, March 16, 2012

रानी और नौकरानी

शादी के पांच बरस बाद
पडोसिन को देखकर
अचानक
वह कैरियर- कांशस हो गई
आर्थिक आजादी की ललक में ,
ले लिया दाखिना उसने
बी. एड. के स्‍कूल में -
खुद पढ़ने लगी
घर में मेड रख ली
रोटी बनाने के लिए
कपड़े धोने के लिए ,
बच्‍चों को कैसे पढ़ाना है
सीख पाई या नहीं
मैं कह नहीं सकता
पर भूल गई वो
जीवन की असली पढाई
दूर होकर
अपनों से और
अपने घर से ,
अब नौकरी करने जायेगी
खुद के बच्‍चों को
किसी और मैडम से
ट्यूशन पढ़वायेगी !

Wednesday, March 14, 2012

बजट के मौके पर

सरकार की आर्थिक नीतियां
तय करती हैं कि
किसी की इनकम
कितनी कम हो
जिससे वह आ जाए
गरीबी रेखा के नीचे
इसी तरह
तय होनी चाहिए
अमीरी रेखा भी
जिसके ऊपर
कमाई करने वालों की
इनकम को
बांट देना चाहिए
गरीबों को ।
क्‍यूं मिनिमम डेली वेजेज
फिक्‍स किए जाते हें
सिर्फ मजदूरों के लिए
मैक्‍सीमम डेली वेजेज भी
फिक्‍स होने चाहिए
अफसरों के लिए
और सबको
उनके किए काम की
दिहाड़ी ही मिलनी चाहिए ,
हा‍थ के काम की कीमत
कितनी कम होनी चाहिए और क्‍यूं
दिमाग के काम की कीमत से !
समाज के सही अर्थतंत्र के लिए
पुश्‍तैनी और बपौती के ढांचे को ढहाना जरूरी है
दलालों और बिचौलियों का खात्‍मा जरूरी है
मुनाफाखोरी और लूट पर लगाम कसना जरूरी है ।