Sunday, January 31, 2010

अमी गांधी बोल्छे

जब मैं जिंदा था
अपने अन्दर की आवाज़ सुनकर-
वही लिखता था
वही करता था
वही कहता था -
जो मुझे उस वक़्त
सच और ठीक लगता था
आज मैं सुनता हूँ
बाहर की आवाजें
जिन्होनें मुझे या तो भगवान बना दिया है
गीता हाथ में पकड़ाकर
महात्मा और बापू से नवाज़ा हुआ
लाठी-चश्मे का बुत
या फिर शैतान
इतिहास की हर घटना के लिए ज़िम्मेदार -
भगत सिंह की फांसी
अम्बेडकर का समझौता
बोस की खिलाफत
जिन्ना का तुष्टीकरण
नेहरु को गद्दी-
हाँ, मैं थोडा जिद्दी जरूर था
पर गुंडा नहीं
जो मेरे नाम के आगे
गिरी,गर्दी या बाज़ी लगाकर
मुझे बना दिया
मुन्ना मोहन से तुमने
गाड से मुझे विशेष प्रेम था
इसलिए ही शायद गोडसे ने ही
मुझसे “ हे राम “ कहलवाया
मैं दोषी हूँ
हरिलाल और मनु-बेन
तुम पर प्रयोग करने का
मुझे माफ़ करो
मैं साधारण इंसान था
तुमने मुझे महात्मा बना दिया
न मुझे राजपाट की लालसा थी
न ही मुझे राजघाट चाहिए
न मेरी वजह से आज़ादी बदली
न ही मेरी वजह से दुनिया बदलेगी
मुझे मत घसीटो
संस्थाओं , तुलना और बहसों में
मेरे नाम को मत भुनाओ
मैंने वही किया
जो मुझे जंचा
तुम वही करो
जो तुम्हें जंचे
हर एक का अपना सच होता है
हर एक का अपना पथ होता है
बस लोकतंत्र में अपनी ज़िम्मेदारी समझो
ईमानदार इंसान बनो
मुझे पढ़कर चर्चा करने से क्या होगा ?
बन्दर ३ या ५ हो सकते थे
व्रत भी नौ ग्यारह या तेरह
कोई फरक नहीं पड़ता
लकीर मत पीटो
अपना सच तलाशो
इस बात का कोई मतलब नहीं
मैं होता तो इस कम्प्यूटर -युग में
क्या इन्टरनेट यूज करता ?
अहम् यह है कि तुम
जो अभी जिंदा हो
क्या करते हो ?
खुद को मुझसे सही या
मुझे आज गलत ठहराकर
तुम कुछ नहीं पाओगे
अपने आप से भागकर कहाँ जाओगे ?
तुम निश्चिन्त रहो
मैं दोबारा नहीं आऊंगा
और इतिहास शायद दोहराता भी नहीं
खुद को हूबहू
उसी ईसा,बुद्ध,नानक या फिर मुझे
देखकर धरती पर
तुम्हें भगवान से ज्यादा
भूत पर यकीन हो जायेगा
और सृष्टि की अनंतता से
यकीन उठ जायेगा
मैं तो अपना जीवन जी कर
जा चुका बरसों पहले
मेरे जैसे बनने की कोशिश मत करो
कोई किसी की कार्बन-कॉपी नहीं होता
अपने दीपक खुद बनो
एकला चलो
मुझे कब्र से बाहर मत निकालो
मुझे चैन से रहने दो
कोई सच अंतिम नहीं होता
यह व्यक्ति और वक़्त के साथ बदलता रहता है

Friday, January 29, 2010

देशप्रेम

दॉंतों में करो ब्रुश कोलगेट का
नहाओ शॉवर में लक्‍स से
नाश्‍ता करो केलगस का
ले जाओ अंकल चिप्‍स स्‍कूल।
पढ़ो जर्मन और फ्रेंच
लिखो रेनोल्‍ड से
बोलो अंग्रेजी टूटी-फूटी
देखो शाम को एम. टी. वी.
पीओ पेस्‍टीकोला और बिसलेरी
और सो जाओ
गटककर पैकेट का दूध
सपने भी दिखेंगे – विदेशी
फिर भी कहना गर्व से -
हम भारतीय हैं,
मेरा भारत महान !

Wednesday, January 27, 2010

छब्‍बीस जनवरी

न जाने क्यूँ
मुझे उन शब्दों से घबराहट होती है
जो किसी को विशेष
और बाकियों को शेष बना देते हैं
वर्गीकरण करते हुए
धर्म, जाति, जेंडर
और भाषा की तरह ही
ऐसा शब्द है राष्ट्र
हाँ - मुझे खतरनाक लगती है
राष्‍ट्र एवं नेशन की अवधारणा ,
जो कृत्रिम दुश्मन बना लेती है
दूर-पड़ोस के राष्ट्रों को
और अपनी हिफाज़त की आड़ में
असलों के जमावड़े को सही ठहराती है
परेड इसी राष्‍ट्र-गौरव की
झॉंकी है शक्ति-प्रदर्शन के तौर पर
“ हमारे पास :
इतने टैंक हैं
इतनी तोपें हैं
हम किसी से कम नहीं हैं “
राष्ट्र इक जुनूनी साजिश है
हुकूमरानों की
रियाया के खिलाफ
उन्हें गुमराह करने के लिए
गरीबी और शोषण की असली लड़ाई से
मेरे लिए पाकिस्तानी गरीब
भारतीय अमीर से ज्यादा नज़दीक है
और नेशनल या मल्‍टीनेशनल लुटेरों में
मुझे कोई फर्क नहीं नज़र आता
ज़मीन सबकी है
तकसीम तो हमने किया है इसे
और अजीब बात है
इखरी-बिखरी जमात को
इंटरकास्‍ट मैरिज , सर्वधर्मसमभाव,
राजभाषा , को-एड और यूनाइटेड-नेशंस के नाम पर
वसुधैव कुटुम्‍बकम के आदर्श को पाने के लिए
सम्मलेन और सेमिनारों का
सिलसिला चलता रहता है निरंतर

Sunday, January 24, 2010

परिचय

थी वो
अनजान, दूर, अजनबी
औरों की तरह
मिला जब उससे पहली बार
जागी जिज्ञासा मन में
जानने की उसे।
कल्‍पनाएं बनी
उन मुलाकातों की
जो होती हैं अनायास
देतीं एक आभास
निकटता का।
पैदा करती हैं
समझ और गहराई
उस रिश्‍ते में
जो अभी पनपने को है।
यूँ तो आये ऐसे अवसर
जब बैठी वह पास मेरे आकर
हुई बातें भी -
कुछ मुख से, कुछ नजरों से
लगा जैसे – पहचान बनी है हमारी
समझ की नींव है यह
गहराई अभी दूर ही सही
उतरे तो हम सागर में
पर क्‍या ?
यथार्थ भी कल्‍पना है , शायद !

Friday, January 22, 2010

उम्‍मीद

मैं जब भी रूठ जाता उससे
मन ही मन रोता
गुस्‍सा भी आता
झुँझलाता :
कभी खाने पर
कभी स्‍वयं पर
कभी अपने से नीचे वालों पर
और कभी उस पर भी।
इंतजार रहता
कब आयेगी वो मनाने
इकट्ठे करते रहता
शिकायतें और स्‍पष्‍टीकरण ।
निराशा घेर लेती दिल को
यादें अतीत की
भय भविष्‍य के
वर्तमान को भी
ठीक से जीने भी नहीं देते
और ---
अचानक ही
आ टपकती वह
मुस्‍कान बिखेरती
समझाती और सुनती मुझे
समझती भी थी काफी हद तक
इसीलिए ---- मैं फिर से
जीने का हौसला कर पाता।

योग

1+1=2 ( गणित )
1+1=3 ( व्‍यापार )
1+1=1 ( अध्‍यात्‍म)
1+1=11 ( कला )
ओर कविता भी इक कला है
समीकरणों से परे

Wednesday, January 20, 2010

रिक्‍शे का सफर

अरे भाई, चलोगे
कहॉं ?
तिलक-ब्रिज
कहॉं पर ?
जीपी.एफ., स्‍टेशन के पास
चलेंगे, पच्‍चीस रुपये लगेंगे
हम (मैं और एक गॉंधीवादी मित्र) दो थे।
पच्‍चीस नहीं, बीस लोगे
अच्‍छा, बाईस दे देना
मित्र ने कहा – ''छोड़ो, बस से चलते हैं।''
मुझे रिक्‍शे में बैठना अच्‍छा लगता है
चाहे मँहगा हो, समय हो यदि।
पता नहीं क्‍यों :
राजसी शौक –
राम-सीता की तरह रथ में बैठना
रिक्‍शे का धीरे-धीरे चलना
बैठकर इधर-उधर का अवलोकन
रिक्‍शे का परंपरागत रूप
रिक्‍शाचालक के प्रति दया-भाव
उसको भी रोजी-रोटी मिल जाए
खैर --- बैठ गए रिक्‍शे में –
राजघाट से गॉंधी-पीस-फाउंडेशन की यात्रा के लिए -
स्‍वदेशी, चरखा, कुटीर उद्योग
शरीर-श्रम, स्‍पर्श-भावना पर
करते रहे गहन-चर्चा
और वो हमें ढोता रहा
उदास वह भी न था
भोजपुरी गीत गा रहा था
पूछा मैंने -
तुम कब से हो दिल्‍ली में ?
कहॉं रहते हो ? परिवार कहॉं है ?
रिक्‍शा अपना है क्‍या ?
कब तक चलाते हो रिक्‍शा ?
बोला वो इस सवाली बौछार के बाद-
बिहार से,
यमुना-पुश्‍ता पर झुग्‍गी में
बीबी-बच्‍चे देश में (वह परदेश में है)
किराये पर है रिक्‍शा
सुबह चार बजे से नौ बजे तक
और सायं आठ से रात ग्‍यारह बजे तक
खाना ?
सब-मिलकर बना लेते हैं
हॉं – हमारे गॉंव के काफी लोग रहते हैं
सभी रिक्‍शा चलाते हैं ?
- नहीं, छोटा-मोटा काम करते हैं
: फैक्‍ट्री में,
: चाट का ठेला, मूँगफली, भुट्टा
: पटरी पर दुकान
: मजदूरी, पुताई
: होटल में - बर्तन मॉंजते
तिलक ब्रिज आ गया -
बाबू जी, आप क्‍या करते हैं ?
- हम ! हम पढ़ने-लिखने का काम करते है,
आज यहॉं सेमिनार है
झुग्गियॉं गिराई जा रही हैं
इसके खिलाफ
- पैसे बढ़ाएं :
तीस रुपये (बीस और दस का नोट)
उसने दस का नोट वापिस कर दिया
'' बीस ही ठीक है
आप तो हमारे ही हो। ''
अंदर पसीज गया
'' अरे रख लो
तुम्‍हारा किराया पूरा हो जायेगा
बोहनी समझ लो। ''
उसने नोट माथे पर लगाए
दुआऍं देते हुए
आगे बढ़ गया
किसी ने हाथ देकर, उसे रोका
फिर वही हुज्‍जत --
'' पंद्रह नहीं, दस लोगे। ''

Tuesday, January 19, 2010

पंचवर्णीय बसंत

(1) आज
कैलेंडर में लिखा है
आज बसंत-पंचमी है
इसलिए मान लेता हूँ
बसंत आ गया है
ठीक उसी तरह जैसे
टी.वी. और अखबार में
अपने ही शहर का
तापमान देखकर
ज्‍यादा गर्मी या ठंड लगती है।

(2) ऋतुराज

मौसमों का बादशाह है
इसीलिए शायद अमीरों का ही
होता है बसंत अब
और त्‍यौहारों की तरह
जिन्‍हें बाजार ने हड़प लिया है
ठीक उसी तरह जैसे
आज के राजाओं (नेता-व्‍यापारी-नौकरशाह-बाबा) ने
जनता की खुशियों को।

(3) रंग
पीले रंग का दिन है आज
फूल, मिठाई, कपड़े – सभी पीले
तो या तो तू पी ले
या फिर येलो कलर की गाड़ी में बैठकर
उत्‍सव मना ले।
ठीक वैसे ही
जैसे सफेद साड़ी पहनकर
वो खुद को पवित्र और शांत समझती है
जैसे हरे रंग की लौह-पटलें
रास्‍तों और बस स्‍टैंडों
पर लगाकर ग्रीन किया जा रहा है
राजधानी की सड़कों को
और लाल रंग का झंडा लेकर
वो इन्‍कलाबी बन जाते हैं
रंग- दे-बसंती गीत गाते हुए।
(4) माली

उसका भी है बसंत थोड़ा-सा
जिसने फूलों की पौध लगाई
और उन्‍हें संभाला
बगीचे की मालिकन के लिए
जो आज बहुत खुश है
जूड़े में पीले फूल लगाकर।

(5) उत्‍सव

पथ में नहीं दिखा वो नजारा
जो किताबों में पढ़ा है
जो गीतों में सुना है
स्‍कूल जाते हुए बच्‍चों की
यूनिफार्म भी पीले रंग की नहीं है
और न ही उनकी प्रेयर में सरस्‍वती का जिक्र है
इसलिए कहता हूँ
आज बसंत पंचमी नहीं है।
बस, एक और दिन है
खुशफहमी का
कि नया मौसम आ गया
और अंत कभी होगा नहीं
गुलामी का, गरीबी का
जिनसे चेहरे पीले पड़े हैं उनके
क्‍लाइमेट-चेंज की खबरों के शोर में
बसंत न जाने कहॉं खो गया,
अरे ये लो …बस आ गयी
चलो चलें बैठकर इसी में
बसंत मना लें,
प्‍लास्टिक के फूलों का
गुलदस्‍ता गोद में रखकर।

Monday, January 18, 2010

अंकुर

आज अचानक
मैंने गौर से देखा
खिले हुए पुष्‍प को
और सोच इसके
अतीत के अंकुर के बारे में
मन ही मन मुस्‍कराया।
हॉं, कहीं-न-कहीं
कभी-न-कभी
आरम्‍भ होता है जीवन – इसी अंकुर से।
न स्‍वयं इसको पता है
न प्रकृति को -
भविष्‍य जो है
अनिश्चित और अत्‍यंत रहस्‍यपूर्ण
पर फिर भी आशा का
आधार है यह अंकुर

Friday, January 15, 2010

यूनिफार्म

एक-सी वर्दी पहने हुए
सड़क पर मार्च करती भीड़ के लोगों से
मुझे डर लगता है।
चाहे वह केसरिया वाले साधु हों
चाहे आर्मी के जवान
चाहे श्‍वेत साड़ी वाली बहनें
चाहे ईद पर जा रहे नमाजी
या फिर खादी वाले गांधीवादी।
न जाने कब जुनून सवार हो जाए
औरों की शामत आ जाए।
यूनिफार्म व्‍यक्तित्‍व का हनन है
और इंसान की नुमाईश
बस यह स्‍कूली बच्‍चों के
लोक नृत्‍य में ही अच्‍छी लगती है।
अभी रंग-बिरंगे गंदे
और मटमैले कपड़े वाले
लोग दिखे हैं
जो रिक्‍शे चला रहे हैं
जो चाय बना रहे हैं
और गुब्‍बारे बेच रहे हैं
तभी तो हौंसला बना है मुझमें
भीड़ की विपरीत दिशा में चलने का।

Thursday, January 14, 2010

संदेशे बटन पर

कनेक्‍शन तारों के क्रिस क्रॉस
नेटवर्क के परिपथ में
धारा के प्रवाह का अहसास दिलाते
और नेट-वर्क (कुल-कार्य 0 )
यही तो इस जंजाल का कमाल है
इतना तामझाम और
सिफर अंजाम
कितनी आसान हो गई है आजकल
संदेशों की आवाजाही
फारवर्ड का क्लिक
कैंची-गोंद और कापी की खिचड़ी -
यांत्रिक और इमपरसनल
तुम मेरी तारीफ करो
मैं तुम्‍हारी ,
तुम मेरी शादी में नाचना
मैं तुम्‍हारी में ,
तुम मुझे मूँगफली बेचना
मैं तुम्‍हें ।
दोनों खुश रहेंगे -
तालियॉं बजाने के लिए
दो हाथ ही काफी हैं
और उनकी गूँज सुनने के लिए
तो फिर एक कान ही काफी हैं ।
आपसी समझ के लिए
सचमुच
ताल-मेल बहुत जरूरी है ।

भयंकर भगवान

मैं नहीं जानता
भगवान को कब और किसने
गढ़ा होगा
पर उसके नाम पर
खूब रोटियां सेक रहें हैं
चारों तरफ फैले हुए दलाल और एजेंट
हर मौके : जन्‍म – शादी – मौत : पर
उनको अपना हिस्‍सा चाहिए
कर्मकांड की आड़ में

वो डराते हैं भगवान के नाम पर
लोग डरते हैं भगवान के नाम पर
उनकी दुकानें चलाने में
सब मदद करते हैं
मीडिया - व्‍यापारी - नेता
और कुछ हद तक हम पढ़े - लिखे लोग भी
चुप रहकर या
फिर खुद ही
उस भगवान से डरते हुए
संस्‍कारवश
जिसको न जाने
किस समझदार और भावुक इंसान ने
गढ़ा है

पुरानी दिल्‍ली स्‍टेशन के सामने

न जाने किस उम्‍मीद पर
जिंदा हैं लोग
बीमार-लाचार-अपाहिज
और भूखे-नंगे
रहने को जगह नहीं
पीने को पानी नहीं
खाने को रोटी नहीं
चेहरे पर रौनक नहीं
ऑंखों में सपना नहीं
कहने को कोई अपना नहीं
नौकर और मजदूर की जिंदगी जीते
सहते हर वक्‍त
सिर्फ जुल्‍म और जिल्‍लत
सहमे - ठहरे हुए
न रोते - न हँसते
ठोकर खाते चप्‍पलें घिसते
थक कर सो जाते
शायद सुबह की खुशफहमी में
जिंदा हैं इसलिए ये
गरीबनवाज के आस्‍थावान बंदे
क्‍योंकि आत्‍महत्‍या को पाप मानते हैं
और इस नारकीय जीवन को अपनी किस्‍मत

Wednesday, January 13, 2010

मौसम

हम हर मौसम को
कोसते रहते हैं -
गर्मी बहुत तेज है
ठंड बहुत ज्‍यादा है
बरसात थम नहीं रही
बरसात पड़ नहीं रही -
इन्‍हें सहना ही होगा
मजबूरी से या मजबूती से
इंसानी छतरी का सीमित इंतजाम
कब तक और कितना टिकेगा
अबूझ कुदरत के सामने
उस नीली-छतरी वाले की :
जो न दिखता है
जो न सुनता है
पर करता है
अपने मन की
उसकी रजा में राजी रहना
मंजूरी ही एकमात्र विकल्‍प है -
आखिर यह मौसम भी बदलेगा ही
और वक्‍त गुजर जायेगा

Tuesday, January 12, 2010

उलझन

कभी मन होता उद्वेलित
सोच क्‍या हुआ ?
सोच क्‍यूँ हुआ ?
आड़ी-तिरछी रेखाऍं
एक दूसरे को काटतीं
बनातीं आकृति दिल में
मकड़ी के जाल-सी।
फिर अचानक जब हो जाता
चित्र इतना उलझा
स्‍पष्‍टत: नजर नहीं आता कुछ
लगता कुछ बना तो है
मानस-पटल पर
पर लिए शून्‍यता स्‍वयं में।
तब सोचता हूँ – मैं भी खो जाऊँ
रेखाओं की तरह
उलझ जाऊँ इतना
कि सुलझाने की जरूरत ही न रहे
न फिर रहे कोई प्रश्‍न शेष
और न किसी उत्‍तर की आशा।

इक बहन की ओर से

वो कहता था : जीना नहीं चाहता
डॉक्टर कहते थे : इलाज हो नहीं सकता
हम सब -उसके रिश्तेदार- भी परेशां थे
जब उसको बुलावा आ गया वक़्त का
वो नया साल ( २०१० ) मनाने
हम सबको इस पुरानी दुनिया में छोड़कर
अपने निजधाम चला गया
( यह दुनिया तो आखिर सराय ही है न मुसाफिरों के लिए)
बिछुड़ने का दुःख तो होगा ही
अपने उस प्यारे भैया का -
जिसे मैं अब देख नहीं सकती
जिसे मैं अब सुन नहीं सकती
जिसे मैं सुना नहीं सकती ( अपना दर्द )
जिसे मैं में छू नहीं सकती
वो जिसके संग बीता था बचपन
साथ की थी पढाई
शरारतें, शिकायतें
रूठना और मनाना
और कभी-कभार लड़ाई भी
वो समझता था मेरा मन
आखिर भाई था मेरा -
सपनों में आज रात भी आया था

कुली

अकड़ के उतरे साहब
रेल के डिब्बे से
दोनों हाथ जेब में डाले
जैसे वो कट गए हों
कुली पीछे-पीछे बोझा उठाये
और साहब की बीबी अपने नाज़-नखरे संवारती ,
टकराए अचानक साहब एक खम्भे से
और धम से नीचे गिर पड़े
चिल्लाये : अरे देखकर नहीं चला जाता
खम्भा वहीँ खड़ा रहा
पीछे से कोई बोला-
" ई भाई , इन्हें भी उठा लो सर पर अपने "
आखिर सर ही तो हैं-साहब
हर एक के सर पर सवार
अब दोनों हाथ ज़मीन पर थे
पर अकड़ उनकी ज्यों की त्यों बरक़रार थी-
सीधी सतर लठ्ठ जैसी

Monday, January 11, 2010

आउटसोर्सिग

तुम्‍हारे पास
गेहूँ उगाने के लिए जमीन है
पर आटा खरीदो दुकान से,
गायें (मॉं) हैं घर में पर
दूध खरीदो मदर-डेरी से,
मशीनें हैं, फैक्‍टरी हैं पर सामान बाहर से खरीदो :
कामन-वैल्‍‍‍थ का खेल खेलते हुए
हम ठेकेदार
नौकरशाही के साथ मिलकर
खूब गोल कर रहे हैं
डी (दिल्‍ली) में।

अपेक्षा और उपेक्षा

मैंने माँगा प्यार उससे
मुझे उपेक्षा मिली
ताकि मैं तुम्हारे नजदीक आ सकूँ।
मैंने चाहा उससे मिलना अकेले
मुझे ग्रुप में आने का कहा गया
ताकि मैं संगठन में रहना सीखूँ।
मैंने माँगा उससे भोजन
मुझे कुछ न मिला
ताकि मैं भूखे रहकर तप सकूँ।
मैंने चाहा इक जगह रहना
मुझे ट्रांसफर मिले बार-बार
ताकि मैं रोशनी फैला सकूँ हर जगह।
मैंने माँगी मौत दुखी होकर
मुझे मिले चैलेन्ज
ताकि मैं जीवन जी सकूँ।
मैंने चाहा लोग मुझे समझें
मुझे मिले व्यंग्य और कटाक्ष
ताकि मैं गहराई में उतर सकूँ।
मुझे तुमने वह सब दिया
जो मैंने नहीं माँगा था
जो मैंने नहीं चाहा था
क्योंकि तुम .......... हाँ, तुम ईश्वर
जानते थे
मेरी क्या जरूरत है
उस यात्रा के लिए
जिस पर मुझे चलकर
तुम तक पहुँचना है
शुक्रिया ! भगवान
तुमने मेरी नहीं सुनी-
नहीं तो-
मैं भटकता नहीं, तुम्हारी तलाश में
और कैसे बनती रचना, वेदना के बिना।
मुझे एकांत की बजाय
बाजार की भीड़ में भेजा गया
ताकि मैं साधना को सही अर्थो में
साध सकूँ।
मुझे मिली उदासी हर जगह
माँगी जब भी खुशी
ताकि मैं उदासीन हो सकूँ।
चाहा जब रिटर्न
तो धोखा और बेवफाई मिली
ताकि जगत की झूठी प्रीत को समझूँ।
मुझे मारी ठोक रें सभी ने
ताकि मैं मुड़ सकूँ
परमात्मा तुम्हारी ओर।
हे ईश्वर ! अब तुमसे माँगता हूँ
ठोकरें, उपेक्षा और व्यंग्य
कराओ दुख और मौत का एहसास
ताकि मुझे इस संसार की निस्सारता का
कोई भ्रम ही न रहे।
मुझे थका दो इतना कि
मैं तुम्हारी गोद में निढाल होकर
गिर पडूँ
तुम सुला दो, मुझे अब
और कुछ नहीं चाहिए
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं

Friday, January 8, 2010

चौसर का खेल

उन्‍हें लगता है
वे खिलाड़ी हैं
शतरंज की बिसात के -
मोहरों को इधर-उधर चलाकर
शह और मात की खुशफहमी में पड़े हैं।
चाल चलनी है
पैदल को पीटना है
हाथी को आगे बढ़ाना है
ऊँट को बचाने के लिए
घोड़े को बीच में रखना है।
रहम आता है उनकी नादानी
पर कोई कठपुतलियों का
नाच नचा रहा है
उन अनजान महारथियों को।

एकला

वह अकेला है
अकेला किसी का नहीं होता
कोई उसका नहीं होता।
दुनिया से अलग रहता है
सड़कों पर भटकता है
उसका कोई घर नहीं
मन उसका कहीं लगता नहीं।
सब या तो औपचारिकता निभाते हैं
या उसे उपेक्षित करते हैं
निराशा की दहलीज पर
पहुंच जाता है कभी कभार वो
फिर भी न जाने कौन
खींच लाता है उसे
इस नाटक में वापिस
कौन
उम्‍मीद, निश्‍चय या वह अदृश्‍य शक्ति
जिसे वो अपना सारथी मानता है।
वह अकेला जूझता जिंदगी से
दुनिया की माया से
चलता एकला ही निर्जन पथ पर
जब छोड़ देते सब उसे अकेला।
वह अकेला की काफी है
जीने के लिए
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता
पर एकला-
अपने पागलपन और सनकपन से
बुद्धिमानों की महफिल में
खलबली जरूर पैदा कर सकता है
अटपटे सवाल उठाकर भीड़ में
नये जवाब तलाशने को मजबूर कर सकता है।
उसे नकारो, दुत्‍कारो और लताड़ो
दुनिया के समझदार रखवालों
ताकि उसे तुम्‍हारा रंग ही न लग सके
उसकी मदद करो
झिड़ककर और मजाक उड़ाकर
वह मजबूर नहीं वरन मजबूत है
चाहे भाग्‍यवान न हो
पर भगवान उसके साथ है।
एकला किसी से नहीं डरता
न ही किसी को डराता है
वह मुक्‍त है
और सबकी आजादी चाहता है।

Thursday, January 7, 2010

राइट टू वर्क

ठेकेदार के हाथ में डंडा
अफसर के हाथ में कलम
और उनके हाथ में हैं पैनीं दरांतियां
जो निकली हैं झुंड में
कालोनी की घास
काटने के मिशन ( काम ) पर
उन मेहनती और गरीब
घसियारन बहनों से
चिल्‍लाकर कहने को मन होता है-
काट डालो गले उन सबके
जो देते नहीं दिहाड़ी तुम्‍हें पूरी या वक्‍त पर
और ताड़ते हैं तुम्‍हें गलत नजरों से
विडम्‍बना यही है-
राजा - एक - होता है
शासन करते हुए
खाट तोड़ने के लिए
प्रजा-अनेक –
शोषित होने और खटने के लिए

Tuesday, January 5, 2010

सीधे-सादे लफ्जों में

कितना मुश्किल है -
सादगी और ईमानदारी पर कविता लिखना
आज अहसास हुआ।
जब चारों तरफ माहौल हो
झूठ, दिखावे और धोखे का
देते हों सौगात प्‍यार से ठेकेदार
और लेते रहें बिना हिचक सरकारी सेवक :
मिठाई का डिब्‍बा दीपावली पर
नई-नवेली डायरी नव-वर्ष पर
होटलों में होती रहें मुलाकातें और
ऑफिस के फोन पर रात में लंबी बातें:
दलाली और समीकरणों की।
जब रिश्‍वत मांगनी न पड़ती हो
खुद ही मिल जाती हो
'' क्‍यू '' तोड़ने के लिए तत्‍काल सेवा की
फीस भी लीगल हो जाए
हर काम का दाम तय हो पहले से
अलिखित करार के रूप में:
काम हो जाएगा, दाम पहुँच जाएगा
काम करे जो दाम लेकर:
वह ईमानदार
काम न करे जो दाम लेकर भी:
वह बेईमान
जो काम करे और दाम भी न ले:
वह पागल।
कमाओ किसी भी तरह
बस कुछ हिस्‍सा दान कर दो
काले को सफेद करने के लिए
खूब जमकर खाओ और
पेट कम करने के लिए
थोड़ा प्राणायाम कर लो।
सचमुच बहुत मुश्किल है -
इस दौर में ऐसे विषय पर लिखना
क्‍योंकि : या तो इसे नैतिकता का प्रवचन
मानकर नहीं पढ़ा जाएगा
या इसके लेखक को सनकपन का प्रमाण-पत्र दे दिया जाएगा।
संवेदनाएं शून्‍य हो चुकी हैं
ना ही कोई कचोट होती है दिल को
माना और स्‍वीकारा जा चुका है
: सभी ऐसा करते हैं
: इतना तो चलता है
: यही तो विकास है
: यही तो बाजार है
दिमाग से दिल की दूरी बहुत बढ़ चुकी है
तर्क भावनाओं पर हावी है आज
आज के भागम-दौर में
कविता लिखना :
वो भी ऐसे सीधे-सादे विषय पर
वाकई बहुत मुश्किल है।

Monday, January 4, 2010

duniya ka DRAMA

संसार का नाटक

सब एक दूसरे पर हँसते हैं-
दाढ़ी वाला सरदार - चुटैया वाले पंडित पर
चोंगे वाला पादरी - झोले वाले समाजसेवी पर
टोपीवाला हाजी - तिलकधारी पुजारी पर
दिगम्बर साधक - सरमुंडे जोगी पर।
सफेद साड़ी - रंगीन साड़ी पर
गजरे वाली - बुरके वाली पर
काला गोरे पर , भूरा काले पर
टाई - पजामें पर, जूता - चप्पल पर
जींस - लुंगी पर, भगवा - हरे पर
बूढ़ा - बच्चे पर, आदमी - औरत पर।
सभी नमूने हैं अजीब
करते नौटंकी इस दुनिया में
अपनी-अपनी।

Sunday, January 3, 2010

कैसी आजादी

कैसी आजादी

है- भाषा की गुलामी

साहब की गुलामी

जोरू की गुलामी

मन की गुलामी

कहॉं है गुलामी

है- किसी को भी गाली बकने की आजादी

सड़क पर खड़े होकर मूतने की आजादी

आवारा बेकार घूमने की आजादी

दंगों में घर जलाने की आजादी

कैसी आजादी

है- हर जगह क्‍यू की गुलामी

बाजार में महँगाई की गुलामी

कोर्ट के चक्‍करों की गुलामी

थाने की दहशत की गुलामी

कहॉं है गुलामी

है- कार और मोबाइल चुनने की आजादी

खुलेआम रिश्‍वत लेने की आजादी

मैच में सट्टा लगाने की आजादी

कैसी आजादी

है- सरकारी बाबुओं की फाइलों की गुलामी

आश्रम में गुरूओं की गुलामी

भीड़रैली में नेताओं की गुलामी

डाक्‍टर की फीस की गुलामी

कहॉं है गुलामी

है- बोतल का पानी पीने की आजादी

पिज्‍जा खाने की आजादी

सरकारी दुकान की दारू पीने की आजादी

वैधानिक चेतावनी के बावजूद:

गुटका खाने और सिगरेट का धुऑं उड़ाने की आजादी

संत का चोंगा पहनकर प्रवचन देने की आजादी

डोनेशन देकर मैनेजमेंट-कोटा से सीट पाने की आजादी

बेहिसाब मुनाफा कमाने की आजादी

अखबार में नंगी तस्‍वीरें छापने की आजादी

बच्‍चे पैदा करने की आजादी

कैसी आजादी

है- सोच की गुलामी, विचार की गुलामी

दिमाग की गुलामी, बाजार की गुलामी