सब चश्मा तो नहीं लगाते
न ही सभी चश्मा न लगाने वालों की
नजर दुरस्त होती है,
तीन चौथाई भरे हुए गिलास को
एक चौथाई खाली कहता है कोई
अपना-अपना नजरिया है.
नजर आता है
किसी को गरीब में अमीर
किसी को अमीर में फकीर
गूंगे की मजबूरी
मौनी की मजबूती है .
अपनी आंखे खुद चैक करो
सही नम्बर का चश्मा पहनो
तभी देख पाओगे साफ
नजारा कुदरत का
पूर्वाग्रह के रंगों से मुक्त।
इनसाइट का सपना
आईसाइट को हकीकत नजर आता है।
Tuesday, April 27, 2010
Thursday, April 22, 2010
रक्त पिपासा
मैं कौआ हूँ
आदिवासी , गरीब और अनपढ़
काला और कुरुप
मेरी आवाज कर्कश है
फिर भी मुझे पानी पीने का हक है
मुझ पर ही क्यूँ गढ़ी
तुमने घड़े और कंकड़ की कहानी ?
बिसलेरी मैं खरीद नहीं सकता
पेशाब मैं पी नहीं सकता
मुझे नहीं बोलना मीठा
मैं चोंच से लड़ूँगा
कांव – कांव के नारे लगाऊँगा
सवाल पूछूंगा चिल्ला-चिल्ला कर
घड़े में पानी कम क्यूँ था ?
तालाब कहां चले गए ?
पब्लिक-प्लेस में प्याऊ क्यूँ नहीं है ?
तुमने मेरे हिस्से का पानी हथिया लिया है
जल, जंगल और जमीन पर मेरा भी हक है
मैं भी प्राणी हूँ
मुझे भी प्यास लगती है
मुझे भी भूख लगती है !
तुम इकट्ठा करो पानी बैंक में
बहाओ उसे पार्क की अय्याशी में
और मैं लाचार ताकता रहूँ
घड़े की तरफ जिसमें
न तो पानी है
न ही पैसा है
घड़े को तुम्हारे सिर के ऊपर फोड़ दूँगा
पत्थर डाल-डाल कर ।
अगर मेरा एक साथी भी
मर गया प्यास से
तो तुम्हारा ऐसा घिराव करूंगा
नानी याद आ जाएगी
तुम्हें नोंच – नोंच कर खा जाऊँगा
तुम्हारा खून पी जाऊँगा !
आदिवासी , गरीब और अनपढ़
काला और कुरुप
मेरी आवाज कर्कश है
फिर भी मुझे पानी पीने का हक है
मुझ पर ही क्यूँ गढ़ी
तुमने घड़े और कंकड़ की कहानी ?
बिसलेरी मैं खरीद नहीं सकता
पेशाब मैं पी नहीं सकता
मुझे नहीं बोलना मीठा
मैं चोंच से लड़ूँगा
कांव – कांव के नारे लगाऊँगा
सवाल पूछूंगा चिल्ला-चिल्ला कर
घड़े में पानी कम क्यूँ था ?
तालाब कहां चले गए ?
पब्लिक-प्लेस में प्याऊ क्यूँ नहीं है ?
तुमने मेरे हिस्से का पानी हथिया लिया है
जल, जंगल और जमीन पर मेरा भी हक है
मैं भी प्राणी हूँ
मुझे भी प्यास लगती है
मुझे भी भूख लगती है !
तुम इकट्ठा करो पानी बैंक में
बहाओ उसे पार्क की अय्याशी में
और मैं लाचार ताकता रहूँ
घड़े की तरफ जिसमें
न तो पानी है
न ही पैसा है
घड़े को तुम्हारे सिर के ऊपर फोड़ दूँगा
पत्थर डाल-डाल कर ।
अगर मेरा एक साथी भी
मर गया प्यास से
तो तुम्हारा ऐसा घिराव करूंगा
नानी याद आ जाएगी
तुम्हें नोंच – नोंच कर खा जाऊँगा
तुम्हारा खून पी जाऊँगा !
Friday, April 16, 2010
मेधा बनाम मैगा
मैं नदी हूँ
प्रवाह मेरी प्रकृति है
धारा मेरी धारणा
मुक्ति मेरा मकसद ।
सागर में मैं खुद जाकर मिलती हूँ
पर तुम्हें किस ने हक दिया
मेरी राह में रोड़े अटकाने का
ऊंचे डैम बनाकर ।
तुम्हारे विकास की अंधेर मे
अंर्तनाद बन गया है क्रंदन
संबंध तो ठीक है
बांध मत बनाओ मुझ पर
मुझे निर्बाध बहने दो
कूड़ा-कचरा फेंककर
नाली मत बनाओ
मुझे जीने दो
दीन मत बनाओ
मुझे आजाद रहने दो
मुझे नदी ही रहने दो !
प्रवाह मेरी प्रकृति है
धारा मेरी धारणा
मुक्ति मेरा मकसद ।
सागर में मैं खुद जाकर मिलती हूँ
पर तुम्हें किस ने हक दिया
मेरी राह में रोड़े अटकाने का
ऊंचे डैम बनाकर ।
तुम्हारे विकास की अंधेर मे
अंर्तनाद बन गया है क्रंदन
संबंध तो ठीक है
बांध मत बनाओ मुझ पर
मुझे निर्बाध बहने दो
कूड़ा-कचरा फेंककर
नाली मत बनाओ
मुझे जीने दो
दीन मत बनाओ
मुझे आजाद रहने दो
मुझे नदी ही रहने दो !
Tuesday, April 13, 2010
पेयर
दो पैर हैं मेरे
चप्पल एक
दूजी जन्म के समय ही
कहीं जा छिटकी
उसे तलाशने में ही
बीती जा रही है जिंदगी
आधे-अधूरे जीते हुए.
कभी मिलती-जुलती चप्पल देखने पर
उसे पहनने की कोशिश करता हूँ
तो पता लगता है
वो और किसी की थी
थोड़ी निराशा के बाबजूद
फिर जुट जाता हूँ खोज में,
पर अब ढूँढने-फेंकने के चक्कर से
इतना ऊब पुका हूँ
कि सोचता हूँ
दूजा पैर ही न होता
तो अप्छा था
कभी मन कहता है
नंगे पॉंव ही चल पडूँ
जिंदगी की टेढ़ी मेढ़ी राहों पर
उतारकर इस एक चप्पल को भी अपने
दोनों पैरों को लहूलुहान करने.
बैशाखी मुझे नहीं चाहिए
और हाथ में एक चप्पल
पकड़े रहने से
झूठी उम्मीद बनी रहेगी
चलो ! ऐसा करता हूँ
इस एक चप्पल को भी फेंक ही देता हूँ.
हकीकत तो यह है कि
सभी समझौते की चप्पल को ही
सही मानकर घिसट रहे हैं
क्योंकि नंगे पैर चलने की
उनमें हिम्मत नहीं है.
चप्पल एक
दूजी जन्म के समय ही
कहीं जा छिटकी
उसे तलाशने में ही
बीती जा रही है जिंदगी
आधे-अधूरे जीते हुए.
कभी मिलती-जुलती चप्पल देखने पर
उसे पहनने की कोशिश करता हूँ
तो पता लगता है
वो और किसी की थी
थोड़ी निराशा के बाबजूद
फिर जुट जाता हूँ खोज में,
पर अब ढूँढने-फेंकने के चक्कर से
इतना ऊब पुका हूँ
कि सोचता हूँ
दूजा पैर ही न होता
तो अप्छा था
कभी मन कहता है
नंगे पॉंव ही चल पडूँ
जिंदगी की टेढ़ी मेढ़ी राहों पर
उतारकर इस एक चप्पल को भी अपने
दोनों पैरों को लहूलुहान करने.
बैशाखी मुझे नहीं चाहिए
और हाथ में एक चप्पल
पकड़े रहने से
झूठी उम्मीद बनी रहेगी
चलो ! ऐसा करता हूँ
इस एक चप्पल को भी फेंक ही देता हूँ.
हकीकत तो यह है कि
सभी समझौते की चप्पल को ही
सही मानकर घिसट रहे हैं
क्योंकि नंगे पैर चलने की
उनमें हिम्मत नहीं है.
Saturday, April 10, 2010
इच्छा
तृष्णा बढ़ रही है
उमरिया घट रही है
चॉंदनी को तरसता है चकोर
आग जलती है
मन में अविरल
सागर की प्यास बुझती नहीं
जिंदगी बीती जाती है
ऐसे ही उम्मीद में
जान चली जाती है
पर तृष्णा नहीं जाती है
उमरिया घट रही है
चॉंदनी को तरसता है चकोर
आग जलती है
मन में अविरल
सागर की प्यास बुझती नहीं
जिंदगी बीती जाती है
ऐसे ही उम्मीद में
जान चली जाती है
पर तृष्णा नहीं जाती है
Thursday, April 8, 2010
कुछ तो लोग कहेंगे
इस धरती पर
इंसान की जिंदगी में
सबसे बड़ा रोग
क्या कहेंगे लोग !
इस समाज को
तनिक भी फर्क नहीं पड़ता
किसी के दर्द का
किसी के दुख का ,
यह बड़ा निर्मम है
चुपचाप जीने नहीं देता
चैन से मरने भी नहीं देता.
इक ही रास्ता है
इसकी परवाह मत करो
बस अपनी जिंदगी जीओ
जो खुद को ठीक लगे :
वही करो
वही लिखो
और वही कहो.
इंसान की जिंदगी में
सबसे बड़ा रोग
क्या कहेंगे लोग !
इस समाज को
तनिक भी फर्क नहीं पड़ता
किसी के दर्द का
किसी के दुख का ,
यह बड़ा निर्मम है
चुपचाप जीने नहीं देता
चैन से मरने भी नहीं देता.
इक ही रास्ता है
इसकी परवाह मत करो
बस अपनी जिंदगी जीओ
जो खुद को ठीक लगे :
वही करो
वही लिखो
और वही कहो.
Tuesday, April 6, 2010
बराबरी का रिश्ता
न मैं समंदर हूँ
न तुम दरिया
हम धाराए हैं.
समान होने की कोशिश में
समा तो नहीं पाते हम
इक दूसरे में
पर हकीकत का सामना
करने की बजाय
सपनों की खुशफहमी में
खुद को डाल देते हैं.
बेहतर पनपती है दोस्ती
जब हम मंजूर करते है
सखा को जैसा वो है
स्पेस देते हुए उसे
उड़ने के लिए
गगन में
समझ , संवेदना और सहयोग का
संगम जरूरी है
प्रेमसागर मे
डूब जाने के लिए.
न तुम दरिया
हम धाराए हैं.
समान होने की कोशिश में
समा तो नहीं पाते हम
इक दूसरे में
पर हकीकत का सामना
करने की बजाय
सपनों की खुशफहमी में
खुद को डाल देते हैं.
बेहतर पनपती है दोस्ती
जब हम मंजूर करते है
सखा को जैसा वो है
स्पेस देते हुए उसे
उड़ने के लिए
गगन में
समझ , संवेदना और सहयोग का
संगम जरूरी है
प्रेमसागर मे
डूब जाने के लिए.
Monday, April 5, 2010
जाके पैर न फटे बिवाई
कैसे समझ सकता है दर्द
आदमी औरत का
सवर्ण दलित का
अमीर गरीब का
पेटू भूखे-प्यासे का
और गृहस्थ एकला का.
फिर भी लिखेंगे
अखबारों में
बढि़या कैरियर वाले ही
बेरोजगारी पर
हाल बीमार का
और मेनस्ट्रीम के मार्जिन पर
रहने वाले हाशिए के लोगों का
समझने के लिए
उनके बीच
उनसा रहना पड़ेगा.
मुझे लगता है
समानुभूति और स्वानुभूति
दोनों ही जरूरी हैं
ईमानदारी से सच
कहने के लिए
लिखने के लिए.
आदमी औरत का
सवर्ण दलित का
अमीर गरीब का
पेटू भूखे-प्यासे का
और गृहस्थ एकला का.
फिर भी लिखेंगे
अखबारों में
बढि़या कैरियर वाले ही
बेरोजगारी पर
हाल बीमार का
और मेनस्ट्रीम के मार्जिन पर
रहने वाले हाशिए के लोगों का
समझने के लिए
उनके बीच
उनसा रहना पड़ेगा.
मुझे लगता है
समानुभूति और स्वानुभूति
दोनों ही जरूरी हैं
ईमानदारी से सच
कहने के लिए
लिखने के लिए.
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