Tuesday, March 30, 2010

वक्‍त गुजरने के साथ

धीरे-धीरे
सब गलत ही होता है
बस कुछ बदल जाता है
बस कुछ भूल जाता है
पर घाव रिसता रहता है
अंदर-ही-अंदर
सड़ांध पैदा हो जाती है
ग्रं‍थियां हो जाती हैं
तनिक और जटिल.
वो दिलासे के लिए
कहते हैं अब भी
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा
पर मैं जानता हूँ पक्‍की तरह
धीरे-धीरे सिर्फ घुन ही लगता है
अनाज को और समाज को भी
कुछ न करने से
कुछ न कहने से.

Friday, March 26, 2010

क्‍लाइमेट-चेंज

अमीरों का फैशन है
उन्‍हीं का चोंचला हैं
कितनी बेईमानी है
पर्यावरण पर चर्चा करना
जब हम कूड़ा फेंक देते हैं
पब्लिक सड़क पर
पानी के फव्‍वारों से सींचते हुए
अपने प्राइवेट लॉन
और सिर्फ मीडिया मे
ग्‍लोबल गर्मी पर
चर्चाएं पढ़-सुन कर खुद को
उन गंदी बस्तियों के
मजबूर बाशिंदों से
ज्‍यादा जिम्‍मेदार समझ लेते हैं
जो खुले में हगते-मूतते है
और जैसा पानी मिल जाए पी जाते हैं ।

Thursday, March 25, 2010

नया साल

खुशफहमी है
कलगीधारी घोड़े को
स्‍मार्ट होने की
बग्‍गी मे जुते हुए ,
श्‍वेतवर्णी कबूतर को
शांतिदूत होने की
गगन में उड़ते हुए
और पढ़े लिखे आदमी को
मालिक होने की
सरकारी नौकरी करते हुए
ज्‍यादा जरूरी है
ईंटों का बोझा
रात की पहरेदारी
और रोटी पकाना
जिसकी जिम्‍मेदारी सौंपी है
समझदार समाज ने
गधे, उल्‍लू और अनपढ़ औरतों को
मूर्ख की पदवी देते हुए
आओ साथियों !
1 जनवरी को
चंद जहीन लोगों के लिए छोड़कर
हम बहुजन
1 अप्रैल का उत्‍सव मनाएं ,
वही हमारा होली है
वही हमारी ईद है
आज हमारा दिन है
कल से तो फिर सहनी है
मंहगाई की मार
आर्थिक बजट का असर
हम पर ही पड़ेगा
.क्‍योंकि हम मूरख हैं
और तुम हरामखोर।

Sunday, March 14, 2010

नया-पुराना

मौसम बदलता है
मंजर बदलता है
मन बदलता है
वक्‍त बदलता है
जमाना बदलता है
इंसान बदलता है
रिश्‍ता बदलता है
पल-पल बदलती जिंदगी मे
सब कुछ बदलता है।

Friday, March 12, 2010

स्‍वार्थ के खिलाफ

बहुरंगी सृष्टि में
इस धरती के
अलावा भी बहुत कुछ है
मसलन
आसमान-हवा-धूप-रौशनी
सिर्फ इंसान ही नहीं है धरती पर
पेड़-पौधे और पक्षी- जानवर भी हैं
पैसा ही नहीं सब कुछ जिंदगी में
रिश्‍ते-नाते और उनका प्‍यार भी है
देखें सही चश्‍मे से अगर तो
इस अर्थ पर अर्थ को ही
अर्थ समझना
नादानी है।
दौड़ने से न होगा सब कुछ हासिल
दिमाग से सच्‍चा होता है दिल
अक्‍सर हकीकत से सुंदर होते है सपने
और कभी पराये भी हो जातें है अपने ।

घबराहट

वक्‍त गुजारने के लिए
अखबार में सुडोकू खेलते हैं
टीवी के रिमोट पर चैनल बदलते हैं
बिनबात पैर हिलाते रहते है
फोन पर बतियाते हैं
मेडिटेशन की मुद्रा मे बैठ जाते है
अरदास बुदबुदाते है
सोते हुए भी सपने देखते हैं
दिमाग के हर कोने को भर देना चाहते हैं
फिर क्‍यूँ कहा जाता है
खाली दिमाग शैतान का घर है ।
भरा दिमाग क्‍या भगवान का घर है ?
धीमे चलने से डर लगता है
दोड़ते रहने से थकान होती है
जिंदगी बड़ी अजीब है !

Thursday, March 11, 2010

5 कविताएं बच्‍चों की

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मेरी अभिलाषा
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सुखी रहें सभी धरती पर
यह है मेरी अभिलाषा
रोटी, कपड़ा मिले सभी को
यह है मेरी अभिलाषा
हर बच्‍चे को मिले पढ़ाई
यह है मेरी अभिलाषा
कभी न हो कहीं लड़ाई
यह है मेरी अभिलाषा ।
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मेरा घर
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थक कर आती हूँ
जब मैं बाहर से
देता है आराम
मुझे मेरा यह सुंदर घर।
पढ़ने जब मैं जाती हूँ
रहता हर पल
मन में मेरा घर
छुटटी होते ही दौड़ पड़ती
मैं अपने घर।
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मेरे पापा
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देखती हूँ सुबह उठते ही
पापा को
जो लगे होते हैं तैयारी में
मुझे स्‍कूल ले जाने को।
प्‍यार करते मुझे मेरे पापा
कभी डांट भी देते
पर जब नहीं होती मैं घर
याद करते मुझे हर क्षण
मम्‍मी से करते बातें
मेरे सपनों की
मेरे पापा को फिक्र है मेरी
अपने से भी अधिक।
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मेरा परिवार
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ममता से भरी मॉं
प्‍यार से भरे पापा
छोटी बहिना
और नन्‍हाँ – सा भैया,
यह है मेरा परिवार
और हॉं ! एक दादी भी है
जो मुझे समझाती हैं हमेशा
अपने वक्‍त की बातें
और रोज सुनाती हैं
किस्‍से – कहानी
सोने से पहले।
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मैं भारत का बेटा हूँ
नाम है मेरा रजत सिन्हादेश
की खातिर लड़ूँगा
मैं जैसे लड़े सूरमा भगत सिंह।
गुरुनानक के प्‍यारे हैं हम
हमें अमन ही भाता है
पर हमको कमजोर न समझो
लड़ना भी हमको आता है
टूट पड़ेंगे दुश्‍मन पर
बन कर हम गोविंद सिंह

Monday, March 8, 2010

ठप्‍पों की थोप महिला पर

मै बिंदी नहीं लगाऊंगी
मैं चूड़ी नहीं पहनूंगी
मैं मांग नहीं भरूंगी
फिर सुहागिन कैसे कहलाऊंगी ?
न मैं माया , न ही छाया
न कोई गुलदस्‍ता
न ढोल-ढोर पिटने के लिए
न ही बाजार का माल बिकने के लिए
न बच्‍चे जनने की मशीन हूँ
मैं भी इक इंसान हूँ।
मैं संगिनी हूँ - अर्धांगिनी नहीं
मां-बहन हूँ - नौकरानी नहीं ,
पति को परमेश्‍वर और
मुझे धर्मपत्‍नी कहना
आदमियत की कोई गहरी साजिश है
मेरी साइलेंस के कारण ही
मुझे शादी के लाइसेंस का
अपने पास रखना जरूरी है
तुम्‍हारे सभ्‍य समाज में
ठीक से जीने के लिए ।
मुझे कुदरत से मिला
अलग तरह का तन
दमन किया सबने मेरा मन
माना सदा मुझे पराया धन
पर रूह मेरी निरंतर सवाल करती है-
सरनेम मैं ही क्‍यूँ बदलूँ शादी के बाद
व्रत मैं ही क्‍यूँ रखूँ करवा-चौथ का
बुरका मैं ही क्‍यूँ पहनूँ
राखी मैं ही क्‍यूँ बोधूं ?
तर्क ( या फिर कुतर्क ) चाहें थोड़ा बदले हों
पर धारणाएं वही हैं-
जहौ नारी की पूजा होती है
वहाँ देवता बसते हैं
आखिर हैं तो वे भी पुरूष ही
इसलिए मुझे स्‍वर्ग से डर लगता है
पर मैं नरक का द्वार नहीं हूँ
डस्‍टबिन या पायदान नहीं हूँ।

Sunday, March 7, 2010

आठ मार्च

जब होगी नर-नारी में समता
तभी मिलेगी मॉं की ममता
जब होगी हर औरत खुददार
तभी मिलेगी बहन का प्‍यार।
निभोओ तुम अपना फर्ज
मत समझो बेटी को कर्ज
पत्‍नी को तुम दो अधिकार
रहेगी वो सदा वफादार।
" आधा है चन्‍द्रमा, रात आधी
आधी है अपनी आबादी
इस आधे-अधूरे जीवन में
हक है हमारा आजादी "