Wednesday, January 27, 2010

छब्‍बीस जनवरी

न जाने क्यूँ
मुझे उन शब्दों से घबराहट होती है
जो किसी को विशेष
और बाकियों को शेष बना देते हैं
वर्गीकरण करते हुए
धर्म, जाति, जेंडर
और भाषा की तरह ही
ऐसा शब्द है राष्ट्र
हाँ - मुझे खतरनाक लगती है
राष्‍ट्र एवं नेशन की अवधारणा ,
जो कृत्रिम दुश्मन बना लेती है
दूर-पड़ोस के राष्ट्रों को
और अपनी हिफाज़त की आड़ में
असलों के जमावड़े को सही ठहराती है
परेड इसी राष्‍ट्र-गौरव की
झॉंकी है शक्ति-प्रदर्शन के तौर पर
“ हमारे पास :
इतने टैंक हैं
इतनी तोपें हैं
हम किसी से कम नहीं हैं “
राष्ट्र इक जुनूनी साजिश है
हुकूमरानों की
रियाया के खिलाफ
उन्हें गुमराह करने के लिए
गरीबी और शोषण की असली लड़ाई से
मेरे लिए पाकिस्तानी गरीब
भारतीय अमीर से ज्यादा नज़दीक है
और नेशनल या मल्‍टीनेशनल लुटेरों में
मुझे कोई फर्क नहीं नज़र आता
ज़मीन सबकी है
तकसीम तो हमने किया है इसे
और अजीब बात है
इखरी-बिखरी जमात को
इंटरकास्‍ट मैरिज , सर्वधर्मसमभाव,
राजभाषा , को-एड और यूनाइटेड-नेशंस के नाम पर
वसुधैव कुटुम्‍बकम के आदर्श को पाने के लिए
सम्मलेन और सेमिनारों का
सिलसिला चलता रहता है निरंतर

2 comments:

  1. मेरे लिए पाकिस्तानी गरीब
    भारतीय अमीर से ज्यादा नज़दीक है
    और नेशनल या मल्‍टीनेशनल लुटेरों में
    मुझे कोई फर्क नहीं नज़र आता
    ........bilkul sahi likha hai aapne.

    krantidut.blogspot.com

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  2. जबरदस्त ।

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