Friday, January 8, 2010

एकला

वह अकेला है
अकेला किसी का नहीं होता
कोई उसका नहीं होता।
दुनिया से अलग रहता है
सड़कों पर भटकता है
उसका कोई घर नहीं
मन उसका कहीं लगता नहीं।
सब या तो औपचारिकता निभाते हैं
या उसे उपेक्षित करते हैं
निराशा की दहलीज पर
पहुंच जाता है कभी कभार वो
फिर भी न जाने कौन
खींच लाता है उसे
इस नाटक में वापिस
कौन
उम्‍मीद, निश्‍चय या वह अदृश्‍य शक्ति
जिसे वो अपना सारथी मानता है।
वह अकेला जूझता जिंदगी से
दुनिया की माया से
चलता एकला ही निर्जन पथ पर
जब छोड़ देते सब उसे अकेला।
वह अकेला की काफी है
जीने के लिए
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता
पर एकला-
अपने पागलपन और सनकपन से
बुद्धिमानों की महफिल में
खलबली जरूर पैदा कर सकता है
अटपटे सवाल उठाकर भीड़ में
नये जवाब तलाशने को मजबूर कर सकता है।
उसे नकारो, दुत्‍कारो और लताड़ो
दुनिया के समझदार रखवालों
ताकि उसे तुम्‍हारा रंग ही न लग सके
उसकी मदद करो
झिड़ककर और मजाक उड़ाकर
वह मजबूर नहीं वरन मजबूत है
चाहे भाग्‍यवान न हो
पर भगवान उसके साथ है।
एकला किसी से नहीं डरता
न ही किसी को डराता है
वह मुक्‍त है
और सबकी आजादी चाहता है।

2 comments:

  1. एकला की सशक्त शुरुआत पर हार्दिक शुभ कामना । Word verification हटा लीजिए । टिप्पणी करने वालों को दिक्कत होती है ।
    सप्रेम,
    अफ़लातून

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