Monday, January 11, 2010

अपेक्षा और उपेक्षा

मैंने माँगा प्यार उससे
मुझे उपेक्षा मिली
ताकि मैं तुम्हारे नजदीक आ सकूँ।
मैंने चाहा उससे मिलना अकेले
मुझे ग्रुप में आने का कहा गया
ताकि मैं संगठन में रहना सीखूँ।
मैंने माँगा उससे भोजन
मुझे कुछ न मिला
ताकि मैं भूखे रहकर तप सकूँ।
मैंने चाहा इक जगह रहना
मुझे ट्रांसफर मिले बार-बार
ताकि मैं रोशनी फैला सकूँ हर जगह।
मैंने माँगी मौत दुखी होकर
मुझे मिले चैलेन्ज
ताकि मैं जीवन जी सकूँ।
मैंने चाहा लोग मुझे समझें
मुझे मिले व्यंग्य और कटाक्ष
ताकि मैं गहराई में उतर सकूँ।
मुझे तुमने वह सब दिया
जो मैंने नहीं माँगा था
जो मैंने नहीं चाहा था
क्योंकि तुम .......... हाँ, तुम ईश्वर
जानते थे
मेरी क्या जरूरत है
उस यात्रा के लिए
जिस पर मुझे चलकर
तुम तक पहुँचना है
शुक्रिया ! भगवान
तुमने मेरी नहीं सुनी-
नहीं तो-
मैं भटकता नहीं, तुम्हारी तलाश में
और कैसे बनती रचना, वेदना के बिना।
मुझे एकांत की बजाय
बाजार की भीड़ में भेजा गया
ताकि मैं साधना को सही अर्थो में
साध सकूँ।
मुझे मिली उदासी हर जगह
माँगी जब भी खुशी
ताकि मैं उदासीन हो सकूँ।
चाहा जब रिटर्न
तो धोखा और बेवफाई मिली
ताकि जगत की झूठी प्रीत को समझूँ।
मुझे मारी ठोक रें सभी ने
ताकि मैं मुड़ सकूँ
परमात्मा तुम्हारी ओर।
हे ईश्वर ! अब तुमसे माँगता हूँ
ठोकरें, उपेक्षा और व्यंग्य
कराओ दुख और मौत का एहसास
ताकि मुझे इस संसार की निस्सारता का
कोई भ्रम ही न रहे।
मुझे थका दो इतना कि
मैं तुम्हारी गोद में निढाल होकर
गिर पडूँ
तुम सुला दो, मुझे अब
और कुछ नहीं चाहिए
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं

3 comments:

  1. माँगा हुआ कभी भी कुछ नहीं मिलता।
    कविता अच्छी लगी।
    घुघूती बासूती

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  2. बहुत अच्छी कविता.

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  3. तो भाई वहा मांगो जो तुम्हे नहीं चाहिए
    तो तुम्हे वह मिलेगा जो तुम्हे चाहिए
    लिखते रहो भाई

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