हम हर मौसम को
कोसते रहते हैं -
गर्मी बहुत तेज है
ठंड बहुत ज्यादा है
बरसात थम नहीं रही
बरसात पड़ नहीं रही -
इन्हें सहना ही होगा
मजबूरी से या मजबूती से
इंसानी छतरी का सीमित इंतजाम
कब तक और कितना टिकेगा
अबूझ कुदरत के सामने
उस नीली-छतरी वाले की :
जो न दिखता है
जो न सुनता है
पर करता है
अपने मन की
उसकी रजा में राजी रहना
मंजूरी ही एकमात्र विकल्प है -
आखिर यह मौसम भी बदलेगा ही
और वक्त गुजर जायेगा
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