Tuesday, January 12, 2010

उलझन

कभी मन होता उद्वेलित
सोच क्‍या हुआ ?
सोच क्‍यूँ हुआ ?
आड़ी-तिरछी रेखाऍं
एक दूसरे को काटतीं
बनातीं आकृति दिल में
मकड़ी के जाल-सी।
फिर अचानक जब हो जाता
चित्र इतना उलझा
स्‍पष्‍टत: नजर नहीं आता कुछ
लगता कुछ बना तो है
मानस-पटल पर
पर लिए शून्‍यता स्‍वयं में।
तब सोचता हूँ – मैं भी खो जाऊँ
रेखाओं की तरह
उलझ जाऊँ इतना
कि सुलझाने की जरूरत ही न रहे
न फिर रहे कोई प्रश्‍न शेष
और न किसी उत्‍तर की आशा।

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