न जाने किस उम्मीद पर
जिंदा हैं लोग
बीमार-लाचार-अपाहिज
और भूखे-नंगे
रहने को जगह नहीं
पीने को पानी नहीं
खाने को रोटी नहीं
चेहरे पर रौनक नहीं
ऑंखों में सपना नहीं
कहने को कोई अपना नहीं
नौकर और मजदूर की जिंदगी जीते
सहते हर वक्त
सिर्फ जुल्म और जिल्लत
सहमे - ठहरे हुए
न रोते - न हँसते
ठोकर खाते चप्पलें घिसते
थक कर सो जाते
शायद सुबह की खुशफहमी में
जिंदा हैं इसलिए ये
गरीबनवाज के आस्थावान बंदे
क्योंकि आत्महत्या को पाप मानते हैं
और इस नारकीय जीवन को अपनी किस्मत
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
behtreen prastuti.......
ReplyDelete