थी वो
अनजान, दूर, अजनबी
औरों की तरह
मिला जब उससे पहली बार
जागी जिज्ञासा मन में
जानने की उसे।
कल्पनाएं बनी
उन मुलाकातों की
जो होती हैं अनायास
देतीं एक आभास
निकटता का।
पैदा करती हैं
समझ और गहराई
उस रिश्ते में
जो अभी पनपने को है।
यूँ तो आये ऐसे अवसर
जब बैठी वह पास मेरे आकर
हुई बातें भी -
कुछ मुख से, कुछ नजरों से
लगा जैसे – पहचान बनी है हमारी
समझ की नींव है यह
गहराई अभी दूर ही सही
उतरे तो हम सागर में
पर क्या ?
यथार्थ भी कल्पना है , शायद !
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यथार्थ भी कल्पना है , शायद ! .........theek vaise hi jaise कल्पना यथार्थ है , शायद .
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