Friday, January 22, 2010

उम्‍मीद

मैं जब भी रूठ जाता उससे
मन ही मन रोता
गुस्‍सा भी आता
झुँझलाता :
कभी खाने पर
कभी स्‍वयं पर
कभी अपने से नीचे वालों पर
और कभी उस पर भी।
इंतजार रहता
कब आयेगी वो मनाने
इकट्ठे करते रहता
शिकायतें और स्‍पष्‍टीकरण ।
निराशा घेर लेती दिल को
यादें अतीत की
भय भविष्‍य के
वर्तमान को भी
ठीक से जीने भी नहीं देते
और ---
अचानक ही
आ टपकती वह
मुस्‍कान बिखेरती
समझाती और सुनती मुझे
समझती भी थी काफी हद तक
इसीलिए ---- मैं फिर से
जीने का हौसला कर पाता।

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