Monday, February 22, 2010

मिशन का शमशान

शुरू होती है
कोई भी संस्‍था
किसी खास मकसद से
इक महत्‍वाकांक्षा होती है किसी की
सपना कुछ नया करने का
पर जैसे जैसे वक्‍त गुजरता है
उसकी अंर्तआत्‍मा से अहम
हो जाते हैं बाहरी कपड़े
कितनी शाखाएं विदेश में
मैम्‍बर्स में :
कितने इंजीनियर और कितने डॉक्‍टर
संख्‍या से संस्‍था का विकास ऑंकते हैं ।
संस्‍था को चलाना ही
मकसद हो जाता है
फाइनंस-फंड-हाउसकीपिंग
और स्‍टाफ-मीटिंग में
उलझ जाते हैं
कार्यक्रम रखने पड़ते हैं
अस्तित्‍व को बचाने के लिए
और खुद को साबित करने के लिए।
जब मूल संस्‍थापक
चला जाता है दुनिया छोड़कर
तो दिशा ही बदल जाती है
किताबों और फोटो में
सीमित हो जाती है संस्‍था
धीरे धीरे बिखर जाती है
घुटन भी जरूर होती होगी
भीतर के कुछ लोगों को
किंतु किसी राह पर
बहुत आगे निकल जाने के बाद
वापिस मुड़ने के लिए
मजबूत कलेजा चाहिए ।
नियमावली की जकड़न में
कट्टर -कैडर तो बन सकते है
पर सार्थक कुछ भी
नहीं किया जा सकता ।

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