शुरू होती है
कोई भी संस्था
किसी खास मकसद से
इक महत्वाकांक्षा होती है किसी की
सपना कुछ नया करने का
पर जैसे जैसे वक्त गुजरता है
उसकी अंर्तआत्मा से अहम
हो जाते हैं बाहरी कपड़े
कितनी शाखाएं विदेश में
मैम्बर्स में :
कितने इंजीनियर और कितने डॉक्टर
संख्या से संस्था का विकास ऑंकते हैं ।
संस्था को चलाना ही
मकसद हो जाता है
फाइनंस-फंड-हाउसकीपिंग
और स्टाफ-मीटिंग में
उलझ जाते हैं
कार्यक्रम रखने पड़ते हैं
अस्तित्व को बचाने के लिए
और खुद को साबित करने के लिए।
जब मूल संस्थापक
चला जाता है दुनिया छोड़कर
तो दिशा ही बदल जाती है
किताबों और फोटो में
सीमित हो जाती है संस्था
धीरे धीरे बिखर जाती है
घुटन भी जरूर होती होगी
भीतर के कुछ लोगों को
किंतु किसी राह पर
बहुत आगे निकल जाने के बाद
वापिस मुड़ने के लिए
मजबूत कलेजा चाहिए ।
नियमावली की जकड़न में
कट्टर -कैडर तो बन सकते है
पर सार्थक कुछ भी
नहीं किया जा सकता ।
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