Wednesday, February 10, 2010

अति का भला न बोलना

बहती हुई नदी के किनारे
टहलते हुए मन खुश होता है
जीवन के प्रवाह को
उसमें देखता हुआ ,
उफनती हुई नदी से डर लगता है
और सूखी हुई नदी तो मन को
उदासी में ही धकेल देती है
उत्साह , भय और निराशा के
इन आयामों कव खुद में समेटे
यह वही नदी .
सृष्टि के तत्वों में संतुलन
बहुत जरुरी है
इनके अति-रूपों से
घबराहट होती है
बाढ़ हो या रेगिस्तान
ज्वालामुखी हो या तूफ़ान .
सौम्यता का आधार है
समता और सरलता
संगीत के लिए
वाद्य-यन्त्र के तारों की
मर्यादा जरुरी है .
बीच का रास्ता
समझौता नहीं
समझ का प्रतीक है
कुछ भी नहीं और
सब कुछ के
मध्य ही
यह सुन्दर संसार है .

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