मेरी लम्बी दाढ़ी देखकर
बच्चे मुझे बाबा कहते हैं
बड़े ज्ञानी और
सब मुझे बुज़ुर्ग समझते हैं.
टोकते हैं मजहबी ठेकेदार
मुझे पगड़ी न पहनने पर
कोसते हैं एनजीओ वाले समाजसेवी दोस्त
सरकारी नौकरी में होने पर और
ऑफिस वाले सहकर्मी
उनसे अलग सोच रखने पर.
भेड़ों की भीड़ में
शामिल नहीं होना मुझे और
न ही हांका जाना चाहता हूँ
कर्म-कांडी डंडों से .
विस्तृत गगन में आज़ाद परिंदे की तरह
उड़ना है मुझे
फ्रेम और संस्थाओं की कैद से
मुक्ति चाहिए मुझे
सीखते हुए खुद ही की रौशनी में
अंधेरों से जूझना है मुझे.
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अच्छी रचना !!
ReplyDeleteअति सराहनीय प्रतिपादना ।
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