Monday, February 8, 2010

तरक्‍की का सफर

बहुत पहले लोग नंगे रहा करते थे
तब वे सीधे- सादे थे
प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या से परे
खुद ही में मस्त.
फिर कपडे पहनने लगा इंसान और
शिष्टाचार हावी होता गया उस पर
वह समझदार हो गया और
शायद थोड़ा चालाक भी
अपने दिल की बात को छुपाना
आ गया उसे.
वह मुखौटे बदलने लगा-
घर का अलग
ऑफिस का अलग
बात को टेढ़े तरीके से
कहने का हुनर सीख गया.
अब वह ठण्ड में न नहाने पर भी
उजली कमीज़ पहनकर
दोस्तों को भ्रम में दल देता है.
वो अब सभ्य हो गया है
हाथ से नहीं कांटे-छुरी से खाना खता है
बुफे वाली पार्टी में शामिल होकर और
यूरोपियन कोमोड पर बैठकर
उसकी अकड़ थोडा और बढ़ जाती है.
मैनीपुलेट कर लेता है
हालात और रिश्तों को.
अब अधनंगापन बढ़ रहा है
न पूरे कपडे , न पूरे दिगंबर
जो सबसे ज्यादा मुश्किल है
समझना और इसलिए शायद
डरावना लगता है.

No comments:

Post a Comment