Wednesday, February 24, 2010

हम छोड़ चलें हैं मेहफिल को

दो दोस्‍त थे
साथ – साथ खाते , बतियाते और रहते
वक्‍त गुजरा
दोनों अपने-अपने काम-काज में
व्‍यस्‍त हो गए
उसका ट्रांसफर हो गया
और उनकी जगहें बदल गईं ।
अभी भी उनकी बातचीत होती
वह थोड़ा जिद्दी थी या तो अब उससे
ठीक से बात न करती
या उसको चिढ़ाती
वह कोशिश करता रहता
टूटता- रूठता
पर खुद ही मान जाता !
पुरानी जगह वाले को
कोई और नया दोस्‍त
मिल गया था
खेल चल ही रहा था
तिकड़ी का
इतने में न जाने क्‍या हुआ
बिखर गई
नयी दोस्‍ती की खुशफहमी
अब वह पुराले दोस्‍त के पास
आना चाहती है
जो इस दुनिया से ही
उठ चुका है
काश !
जीते जी रिश्‍ते की कद्र की होती ।

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