Friday, February 19, 2010

कलम की किलकारी

सड़क पर पैदल चलते हुए
किसी किताब को पढते हुए
कोई गीत सुनते हुए
नींद में सपना देखते हुए
या फिर यूँ ही उदास बैठे हुए
कोई बीज पड़ जाता है
अवचेतन मन में
और गर्भ ठहर जाता है.
न जाने कितना वक्‍त लगे
उसे पकने में
किंतु प्रसव पीड़ा गहरी हो जाए
तभी डिलीवरी होगी
और अपनी नवजात गुडि़या को
गोद मे पाकर ही
मुझे तृप्ति मिलेगी.
मेरी रचना चाहे
तुम्‍हें कविता न लगे
पर वो बहुत सुंदर है
और समझभरी भी,
क्‍योंकि उसे मैंने जन्‍मा है
अपनी कोख से
और उसका कोमल स्‍पर्श
महसूस किया है
रोम-रोम की गहराईयों तक
मैंने अपने भीतरण.
वो मेरा अहसास है
वो मेरा जज्‍बात है
वो मेरा हिस्‍सा है
वो मेरा किस्‍सा है.

1 comment:

  1. मेरी रचना चाहे
    तुम्‍हें कविता न लगे
    पर वो बहुत सुंदर है
    और समझभरी भी,
    क्‍योंकि उसे मैंने जन्‍मा है
    अपनी कोक से
    ...very nice.

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