सर पर उठाये,
रौशनी के खम्भे
चलती धीरे-धीरे
बारात में
क्या सोच रही है वो ?
साथ में चल रही हैं
मोटी-भारी औरतें
लादे हुए जेवर
पुते हुए चेहरे
नशे में चूर
नखरे-सँवारती
मस्ती से मदमाती चाल में।
बीच-बीच में
जब कारवॉं रूक जाता है
नाचने लगते हैं बाराती
और वो '' बेचारी '' खड़ी हो जाती है
खंभे को सिर पर सँभालती
ताकती रहती है इंतजार
कब नाच थमेगा
और ''वो'' बोझ उठाए
खड़े रहने की पीड़ा से मुक्त होगी।
बारात पहुँच गई है मंडप
रौशनी फैली है चारों ओर
अब उसकी जरूरत नहीं
द्वार से ही उसे और
उसकी सखियों को
वापिस मोड़ दिया जाता है,
जो अभी भी उठाये हैं
सर पर ऊँचे
रौशनी के खंभे ।
पर अब उनकी चाल है तेज जरा
शायद चालीस रुपये पाकर
या जल्दी घर पहुँचने को :
खाना बनाना है
बच्चों के लिए
जो भूखे ही सोने की
कोशिश कर रहे होंगे
उनके पेट में बारात के
बाजे बज रहें होंगे ।
वह भी अभी भूखी ही है
और बाराती ...... प्लेटें चाट रहे हैं।
कल एक और शादी है
उसे भी बुलावा मिला है
रौशनी के ठेकेदार से
आजकल लग्न का मौसम है।
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अच्छी रचना ,,,,,,,अंत बड़ा सार्थक है ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट.
ReplyDeleteपहली बार आया आपके ब्लॉग पर ....आकर अच्छा लगा ...शब्दों के इस सफ़र में अब आप अकेले नहीं है ,,,,, मैं भी आपके साथ हूँ
ReplyDeleteमार्मिक चित्रण उन महिलाओं का..
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