आज फिर गया मैं
एक आयोजित कार्यक्रम में
उम्मीद से कि
कुछ हासिल कर लौटूँगा।
वही सब कुछ हुआ:
दीप-प्रज्ज्वलन
मुख्य अतिथि का उदबोधन
दो शब्दों की लंबी श्रृंखला
परदा, बैनर, फर्श, अर्श
पानी की बोतलें
माइक, पोडियम, लाइट
श्रोता-दर्शक, मंच, वक्ता
और बीच-बीच में
स्वत: ध्वनित तालियॉं।
ईवेंट-प्रबंधन का कितना
सुगम और सहज
तरीका हो गया है, प्रोफेशनल
सिंगल विण्डो पर सब कुछ
मिल जाता है-
फूड, टेंट, साउंड, लाइट, हॉल
और कार्यक्रम के
स्पॉन्सर, वक्ता-परफॉर्मर भी।
मंच के लोगों
और सामने बैठे-देखते लोगों में
कितना भेद हो जाता है
जैसे मंच जवाब हो
और सामने केवल
सवाल करने वाले लोग।
सभी परेशान, बोर, बेचैन
किंतु सुनते-झेलते-झल्लाते
इंतजार करते कब
कार्यक्रम समाप्त हो
और भोजन शुरू हो।
अंत में ..........
सभी मंच के लोगों से अपनी
पहचान का
सबूत देने की कोशिश में
जरा उनसे मैं भी मिल लूँ
जो यह भी नहीं सुनते
कि आप कैसे हैं कहॉं ठहरे हैं
बस अपनी अकड़ में
अभी भी बखानते जा रहे हैं
अपना ही व्याख्यान, उपदेश
और कि-
'' हमने ऐसा किया
हम यह करेंगे
हम वह करेंगे ''
सब बदल जाएगा
पर हम नहीं बदलेंगे
क्योंकि हम, हम हैं
वी.आई.पी मंचों के अध्यक्ष
और सर्वज्ञ।
एक और अनुभव
अब नहीं जाऊँगा।
पर नहीं, अब जाऊँगा-
बस नाटक देखने
और इस कविता को
आगे बढ़ाने के लिए
मसाला इकट्ठा करने।
सब जानता हूँ या नहीं
पर जानना चाहता हूँ-
हिपोक्रेसी, डबल स्टैंडर्ड :
समाज की गति, स्थिति और दिशा
जो मुझे भी मालूम है
पर सुनूँ तो-
आयोजकों के तमाशों में
क्या हो रहा है आज
... चलो, चलें देखने स्वांग-
नचनिया, भटरिया और उपदेशक
इकट्ठे हैं
तालियॉं भी तो जरूरी हैं
उन्हें नचाने के लिए।
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बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
ReplyDeleteबस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से
क्माल का विवरण है।
ReplyDeleteसरकारी संस्थानों में ऐसा ही होता है।
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
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