Tuesday, May 11, 2010

वाघा की सांझ

बार्डर पर भीड़ थी :
परेड देखने का जोश
धक्का - मुक्की, सिक्यूरिटी
और क्रिकेट मैच जैसा शोर।
मैं गेट के बाहर से लौट आया
और पड़ोस के गाँव रोड़ा
( हिन्दुस्तान की तरफ )
चला गया।

सुनसान सड़क
आर्मी के अड्डे
शाम होने को थी
अजान और वंदे - मातरम की गूँज
लाउडस्पीकर पर बजते गीत
(देश – विभक्ति के)
इधर टूटी-फूटी रोड़ पर
छोटे बच्चे टहल रहे थे
उस भव्य – परेड से अनछुए
उनके मन में न जाने क्या होता होगा
: पाकिस्तान के खिलाफ
: पड़ोसियों के खिलाफ
: मुसलमानों के खिलाफ।
पर ये शहरी देशप्रेमी
अपने जुनून और नारों से
नफरत का बीज जरूर बो देते है,
झंडा फहराया - उतारा – चढाया जा सकता है
चुपचाप भी
पर नुमाईश .....

बिजली के तार
ट्रकों की कतार (प्याज और आलू)
मजदूर, फसल – खेत
और चिड़िया – कौओं के लिए
हदें बहुत बेमायने होती हैं
और शायद नहीं भी होती हैं।

गाँव के जानवर
चुपचाप बैठे है
वो हू-हू की आवाजें
कर रहे है
सियासत करते अमन की।
तकसीम और दरारें बनाकर।

2 comments:

  1. बेहतरीन बात कही है आपने...

    पर ये शहरी देशप्रेमी
    अपने जुनून और नारों से
    नफरत का बीज जरूर बो देते है

    हम अपनी भावनाओं को नियंत्रित करें तो नफरत का फैलना काबू में रखा जा सकता है...एक प्रेरक पोस्ट है आपकी.
    जावेद साहब के शब्दों:
    पंछी नदिया पवन के झोंके कोई सरहद ना इन्हें रोके...
    नीरज

    ReplyDelete
  2. वाघा की सान्झ दुखी कर गयी। सालों से मन है जाऊं, मगर अब...
    खूब्सूरत शब्द-चित्र उकेरे हैं।

    स्वाति

    ReplyDelete