Friday, May 7, 2010

जिंदगी का मकसद

मुझे जीना है
हाशिए के लोगों के लिए
गूंगों की आवाज बनकर
लंगडों के पैर बनकर
अंधें की लाठी बनकर
बीमारों को हौंसला देना है।

शामिल होना है
गरीब की खुशियों में
अछूत को अपनाना है
लिखनी है उनकी गाथा
जो जीवन के संघर्ष में
इतना उलझे रहे
कि पढ़ना लिखना उनके लिए
लक्‍जरी हो गया।

औरत को आदमी
तो नहीं बनाना मुझे
पर उसमें औरत होने का
स्‍वाभिमान पैदा करना है
और आदमियत के अहम से
उसे उबारना है।

मैंने ईश्‍वर को देखा नहीं
सरकार पर यकीन नहीं
अमीर की लूट रोकने का
मैं खुद ही होना चाहता हूँ
गरीबनवाज और दीनबंधु
लड़ते हुए जुल्‍म के खिलाफ ।
हाशिए के लोगों के लिए ही
मुझे मरना है।

4 comments:

  1. प्रेरक और सराहनीय कविता /

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  2. हमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।

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  3. बढ़िया है भाई।
    ऐसे मकसद बाकी लोग भी बना लें तो सारा देश सुधर जाएगा।

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