Tuesday, May 4, 2010

इंसटेंट मैसेजिंग

पढ़ा इक किताब में :
इजहार करते थे जज्‍बातों का
उस जमाने में प्रेमी
चॉंद को देखकर
अपनी-अपनी छत से
दूर रहते हुए भी
तरंगे भेजते रिश्‍तों में
जरिया बनाते हुए कुदरत को।

कबूतरों को संदेशा पहुंचाते हुए
तो मैंने नहीं देखा
पर अपनी इसी जिंदगी में
पोस्‍टमैन को जरूर मिला हूँ
खत और खबरें ले जाते हुए ,
एसटीडी की पल्‍स चौथाई होने का
इंतजार करते थे देर रात तक
आज की मोबाइल-क्रांति से
दस बरस पहले ही तो ।

सोच कर घबराता है मन
मेरे बूढ़ा होते-होते
कितनी बदल जाएगी दुनिया
और कितना विसंगत हो जाऊंगा मैं
वक्‍त की रफ़्तार में
कहते हुए खांस-हांफ कर
” हमारा भी जमाना था “

2 comments:

  1. फिलहाल अपने इस प्रिय मित्र को खांसते हांफ़ते नहीं देखना चाहते !

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  2. hmm...zamana badal gaya hai....everything is just a click away.

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