Monday, April 5, 2010

जाके पैर न फटे बिवाई

कैसे समझ सकता है दर्द
आदमी औरत का
सवर्ण दलित का
अमीर गरीब का
पेटू भूखे-प्‍यासे का
और गृहस्‍थ एकला का.
फिर भी लिखेंगे
अखबारों में
बढि़या कैरियर वाले ही
बेरोजगारी पर
हाल बीमार का
और मेनस्‍ट्रीम के मार्जिन पर
रहने वाले हाशिए के लोगों का
समझने के लिए
उनके बीच
उनसा रहना पड़ेगा.
मुझे लगता है
समानुभूति और स्‍वानुभूति
दोनों ही जरूरी हैं
ईमानदारी से सच
कहने के लिए
लिखने के लिए.

1 comment:

  1. समानुभूति और स्‍वानुभूति
    दोनों ही जरूरी हैं

    बहुत उम्दा , सच ही तो है जाके पांव न फ़टी बिवाई , सो क्या जाने पीर पराई

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