दो पैर हैं मेरे
चप्पल एक
दूजी जन्म के समय ही
कहीं जा छिटकी
उसे तलाशने में ही
बीती जा रही है जिंदगी
आधे-अधूरे जीते हुए.
कभी मिलती-जुलती चप्पल देखने पर
उसे पहनने की कोशिश करता हूँ
तो पता लगता है
वो और किसी की थी
थोड़ी निराशा के बाबजूद
फिर जुट जाता हूँ खोज में,
पर अब ढूँढने-फेंकने के चक्कर से
इतना ऊब पुका हूँ
कि सोचता हूँ
दूजा पैर ही न होता
तो अप्छा था
कभी मन कहता है
नंगे पॉंव ही चल पडूँ
जिंदगी की टेढ़ी मेढ़ी राहों पर
उतारकर इस एक चप्पल को भी अपने
दोनों पैरों को लहूलुहान करने.
बैशाखी मुझे नहीं चाहिए
और हाथ में एक चप्पल
पकड़े रहने से
झूठी उम्मीद बनी रहेगी
चलो ! ऐसा करता हूँ
इस एक चप्पल को भी फेंक ही देता हूँ.
हकीकत तो यह है कि
सभी समझौते की चप्पल को ही
सही मानकर घिसट रहे हैं
क्योंकि नंगे पैर चलने की
उनमें हिम्मत नहीं है.
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