Monday, March 8, 2010

ठप्‍पों की थोप महिला पर

मै बिंदी नहीं लगाऊंगी
मैं चूड़ी नहीं पहनूंगी
मैं मांग नहीं भरूंगी
फिर सुहागिन कैसे कहलाऊंगी ?
न मैं माया , न ही छाया
न कोई गुलदस्‍ता
न ढोल-ढोर पिटने के लिए
न ही बाजार का माल बिकने के लिए
न बच्‍चे जनने की मशीन हूँ
मैं भी इक इंसान हूँ।
मैं संगिनी हूँ - अर्धांगिनी नहीं
मां-बहन हूँ - नौकरानी नहीं ,
पति को परमेश्‍वर और
मुझे धर्मपत्‍नी कहना
आदमियत की कोई गहरी साजिश है
मेरी साइलेंस के कारण ही
मुझे शादी के लाइसेंस का
अपने पास रखना जरूरी है
तुम्‍हारे सभ्‍य समाज में
ठीक से जीने के लिए ।
मुझे कुदरत से मिला
अलग तरह का तन
दमन किया सबने मेरा मन
माना सदा मुझे पराया धन
पर रूह मेरी निरंतर सवाल करती है-
सरनेम मैं ही क्‍यूँ बदलूँ शादी के बाद
व्रत मैं ही क्‍यूँ रखूँ करवा-चौथ का
बुरका मैं ही क्‍यूँ पहनूँ
राखी मैं ही क्‍यूँ बोधूं ?
तर्क ( या फिर कुतर्क ) चाहें थोड़ा बदले हों
पर धारणाएं वही हैं-
जहौ नारी की पूजा होती है
वहाँ देवता बसते हैं
आखिर हैं तो वे भी पुरूष ही
इसलिए मुझे स्‍वर्ग से डर लगता है
पर मैं नरक का द्वार नहीं हूँ
डस्‍टबिन या पायदान नहीं हूँ।

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