Monday, November 12, 2012

अंघेरे से उजाले की ओर

कैसे कहूं मैं दीवाली आई है
चाइनीज बल्‍बों की झालर है
पैकेट में ड्राईफ्रूट- मिठाई है
घर में नहीं बनते पकवान
कैफे से काफी मंगवाई है
बाजार में बहुत मंहगाई है ,
सब आसान है
तेल निकल जाता था
मिट्टी के दीयों मे
घी डालते - बाती लगाते
अब स्विच ऑन करते ही
जगमगाने लगाती है मुंडेर
कितनी रातें जलाओ
कोई मेहनत नहीं ,
नाजुक फुलझड़ी की  
चमचमाती रोशनी
कहीं दब गई है
ताकतवर बमों की आवाज में ,  
न वो थाल में सजे हुये खील-बताशे
न ही खांड के वो मीठे-प्‍यारे खिलौने
न चाक से लाया दीपक न रूई की बाती
न कोई खास खुशी न ही नैनों में ज्‍योति ,  
ऑफिस में छुट्टी का माहौल देखकर
पटाखों की कनफोड़ू आवाज सुनकर
हैवी डिस्‍काउंट के विज्ञापन पढ़कर
जुये और शराब की खबरें सुनकर
गिफ्टें ढोते हुए लोगों को देखकर
लगता है मुझको भी ,  दोस्‍तों
अब दीवाली आ ही गई है
किसी ने मुझसे पूछा - 
दो दीवाली क्‍यूं मनाते है !
मैंने सोचा -  ठीक ही तो है
छोटी दीवाली भारत की आम जनता के लिए
बड़ी दीवाली इंडिया के बिग  बॉसेज के लिए
अमीर और व्‍यापारी की ही सच्‍ची दीवाली है
गरीब और ग्राहक का तो निकलता दिवाला है ।
भाषा बदल रही है -  शैली बदल रही है
हम प्‍लास्टिक और कम्‍प्‍यूटर के युग में
आगे निकल चुके हैं ; रा1 से रैम की ओर ।

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