इससे नशा होता है
दिमाग भी भ्रष्ट हो जाता है
कभी-कभार गम हल्का हो जाए
पर कहीं सिर बोझिल भी हो जाता है
कड़वाहट में खुद को विस्मृत कर
किसी दूसरा दुनिया में चले जाते हैं
भूल कर यथार्थ
सुरुर के स्वप्न-लोक में
डगमगाते पैर और हाथ
थक-कर बड़बड़ाते हुए
सो जाते हैं
नींद भी नहीं आती
बस सुध-बुध खोकर पड़े रहते हैं
ऑंखें मलते हुए उठते हैं जब
ग्लानि होती है -
अब नहीं पीएंगे
शाम आती है -
फिर वही दोस्त, वही बोतल
और वही बहाना -
''थोड़ी-सी---- बस थोड़ी-सी''
शराब पीने लगती है हमें
जिसे हमने पीना शुरु किया था – कभी।
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''थोड़ी-सी---- बस थोड़ी-सी''
ReplyDeleteशराब पीने लगती है हमें
जिसे हमने पीना शुरु किया था – कभी। .....sahi faramaayaa.