बैठे हुए छत की मुंडेर पर
या खिड़की पर
या फिर बाहर-पत्थर की बेंच पर
देखता हूँ मैं
आती-जाती गाडि़यों को
भागती-दौड़ती जिंदगानी में।
रिक्शें पर बैठी मोटी औरतें
और उन्हें खींचता दुर्बल-सा पुरूष
आकाश पर छितराये बादल
दूर ऊँचाई पर उड़ते कौए
तरह-तरह की आवाजें
झगड़ती पड़ोसिनें
साइरन की लंबी चीत्कार
लगता है जैसे यही सब कुछ
अंदर चल रहा हो मन मे
ट्रैफिक की तरह निरंतर
विचारों का जंजाल।
कितना कठिन है
साक्षी बनना
और ब्ैठना शांत
जब चारों तरफ कोलाहल हो
दुनियादारी की।
थककर शांति – यह तो मजबूरी है
यात्रा की जरूरत ही नहीं- यह मजबूती है।
जब शरीर हो कमजोर
तो मजबूती और मजबूरी
एक हो जाती है
कुछ समझ में नहीं आता
बैठ जाएं भीड़ मे
कुचलने के लिए
या दौड़ते रहें
निरर्थक और निरुद्देश्य।
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ट्रैफिक की तरह निरंतर
ReplyDeleteविचारों का जंजाल।
मन के द्वंद्व को दर्शाती अच्छी रचना है..
ReplyDeleteकुछ समझ में नहीं आता
ReplyDeleteबैठ जाएं भीड़ मे
कुचलने के लिए
या दौड़ते रहें
निरर्थक और निरुद्देश्य।
bahut hi sundar va saarthak rachana hai !
Tarun K Thakur
http://www.whoistarun.blogspot.com