Sunday, March 20, 2022

Dur ke dhol

 दूर के ढोल


मैं पार्क में घूमने गया

दूर की घास हरी-भरी दिखाई दी

वहां पहुंचा तो वैसी नहीं थी

मन बैठने को नहीं हुआ

आगे की घास हरी-भरी लगी

यह सिलसिला चलता रहा

और वहीं बैठ गया अंतत:

हार थक कर मैं

जहां उस वक़्त खड़ा था,

खत्‍म हुआ इस तरह

मेरा वर्तुल भ्रमण :

मैं केंद्र से दूर

परिधि पर भटकता रहा

कस्‍तूरी की खोज में

हिरन बना हुआ,

मरीचिकाएं

सिर्फ रेगिस्‍तान में ही नहीं होती

पूरी जिंदगी मे होती है

दूसरे की थाली में पड़ा खाना

ज्‍यादा और जायकेदार लगता है

पराये का दुख छोटा लगता है

पड़ोसी की बीबी सुंदर लगती है

वर्तमान से हमें घबराहट होती है

पिछली कक्षा आसान लगती है

अगली कक्षा का रोमांच होता है

अपनी आज की परीक्षा ही

हमें मुश्किल लगती है

जो नहीं है , रखता हे वो

उलझाये और बहलाये

हमारे मन को

ख्‍वाब और डर में

जिंदगी बीतती जाती है

वक्‍त गुजरता जाता है

हम यूँ ही धीरे-धीरे

चुकते चले जाते हैं 

बाल भी सफेद होते जाते हैं 

थोड़े धूप में और थोड़े छांव में ।

Sunday, February 20, 2022

Meri nanhi-si khwahish

 मेरी नन्हीं-सी ख़्वाहिश 

मैं रेलवे स्टेशन पहूँचूं तो गाड़ी रुकी मिले। हम जिस गाड़ी का इंतजार कर रहे हों, उसका एनाउंसमेंट  बार-बार हो | वह आकर तब तक रुकी रहे ,जब तक मैं और मेरा सामान पूरी तरह से ठीक-ठाक चढ़ न जाए और मुझे अपनी पसंद की सीट/बर्थ मिल जाए (लोअर/अंदर)। गाड़ी जल्‍दी उस स्‍टेशन के मेन प्‍लेटफार्म पर पहुंचे जहॉं मुझे उतरना है और वहां तब तक खड़ी रहे ( सीढि़यों के सामने ) जब तक मैं पूरी तरह से ठीक-ठाक उतर न जाऊँ। गाड़ी समय से ही पहुँचे और तभी मेरी ऑंख खुले ताकि रात की नींद में खलल न पड़े। कोई स्‍टेशन पर मुझे लेने के लिए गुलदस्‍ता हाथ में लिए खड़ा हो । बाकी मुझे कोई मतलब नहीं किसी से  मैं सेल्फिश नहीं हूँ | आखिर मुसाफिर हूँ , मुझे रहना थोड़े ही है गाड़ी में। 

Thursday, February 17, 2022

Gusse ki dictionary

सब कहते हैं 

गुस्‍सा नहीं आना चाहिये 

इससे सेहत खराब होती है 

पर क्‍या करें 

गुस्सा आ ही जाता हैं 

थोड़ी देर बाद 

शांत भी हो जाता है,

दूध के ऊफान की तरह 

किसी को बहुत जल्‍दी आ जाता है 

किसी को काफी देर बाद आता है 

जैसे अलग-अलग होता है 

हर लिक्विड का BP (बाइलिंग प्‍वांइट

और ..... शायद ब्लड प्रेशर भी) ,

गुस्‍से की डिक्‍शनरी

अक्‍सर बहुत छोटी होती है 

बाद में समझाना पड़ता हैं 

हमारा यह मतलब नहीं था, 

दूसरे को या सिचुएशन को ही 

हम जिम्‍मेदार ठहराते हैं 

इसलिए गुस्‍से से 

अक्सर दूर नहीं हो पाते हैं,

मुझे लगता है 

इंसान को गुस्‍सा 

आना भी जरूर चाहिए : 

जब जरूरी हो 

जहां जरूरी हो 

जिस पर जरूरी हो :

जुल्‍म और जबरदस्‍ती के खिलाफ

शोषण और विषमता के खिलाफ 

झूूठ-फरेब और धोखे के खिलाफ, 

पर पता नहीं चलता उस वक्‍त हमें

इतना गुस्‍सा करना जरूरी था क्या ? 

कभी छोटी-छोटी बातों पर 

ज्यादा आ जाता है तो

कभी बड़ी बातों पर भी

उतना नहीं आता  जितना आना चाहिये या

हम गुस्‍सा पी जाते हैं अपने अंदर ही

बाहर सभ्‍य दिखने-दिखाने के लिए 

पर दबाने से 

गुस्‍सा खत्‍म नहीं हो जाता 

अलबत्‍ता सेहत अंदर से 

खराब जरूर हो जाती है

चूंकि ज़्यादातर गुस्‍सा 

लिख और बोलकर ही 

बाहर निकलता है

इसलिए इसे जाहिर करने की 

हमें डिक्‍शनरी बढ़ानी चाहिये !