Sunday, September 20, 2015














मैं कोयल हो मैं कौआ हूं 

हम दोनों एकसे पाखी हैं 
तुम कूकू कूकू करती हो 
मैं कांव कांव करता हूं; 
हमको लड़वाने की कोशिश में 
जग वालों ने यह बात रची -
तुम मीठा सुर लगाती हो
 मैं कड़वी जुबां चलाता हूं  
हम दोनो काले काले है 
पर सच्चेे दिल वाले हैं; 
अपनी अपनी बोली हमारी 
पर एक हमारी भाषा है 
दुनिया में हो भाईचारा 
यही हमारी आशा है; 
भोर हुई उठ जाते हैं 
सांझ हुई सो जाते हैं 
एक पेड़ पर रह लेते
एक गगन में उडते हैं, 
चाहे नहीं दिमाग हमारे 
दिल तो हम भी रखते है 
इंसां से बेहतर हैं हम 
आपस में नहीं लड़ते हैं,
चोंच में जितना आ जाता 
उतना ही खा लेते हैं 
नहीं जमा करते कुछ भी
लोभ नहीं हम करते हैं; 
श्राद्ध में होती पूजा मेरी 
बाकी दिन कंकड़ पड़ते हैं 
कोयल दीदी तुम ही बतलाओ 
ये सब क्यूं वे करते हैं !

Tuesday, April 14, 2015














बाल उलझे रहें 
हाल सुलझा रहें 
यह कैसे संभव है
मन में हो वेदना 
तन चंगा रहे 
यह कैसे संभव है
घर में झगड़ा हुआ
दफतर शांत रहे
यह कैसे संभव है
कुदरत उजड़ती रहे
विकास होता रहे
यह कैसे संभव है
दिन में गलतियां हो
रात नींद आया करे
यह कैसे संभव है
है सब कुछ गुंथा हुआ
तो देखें अलग अलग
यह कैसे संभव है !

Monday, April 6, 2015

जब पिता जी चाय पीते थे 
सुड़क-सुड़क की आवाजें करते हुए 
तो मैं झुझालाकर 
दूसरे कमरे में चला जाता था, 
साथ में बैठे छोटे भाई को 
चपचप करते हुए
रोटी खाने पर
कभीकभार चपत भी लगा देता था -
पर अब
ऑफिस में बॉस
वैसे ही तरीके से चाय पीते हैं
तो चुपचाप बैठा रहता हूं ,
हॉस्टल की मैस में
नानवेज की टेबुल पर
साथ बैठकर खाना खा लेता हूं
दूसरे लोग भी देखते रहते हैं
बिना कुछ कहे
जब मेरी दाढी़ में दाल गिर जाती है,
दादा जी बीमारी में ज्याजदा खांसते थे
तो उन्हें पापा भी कुछ सुना देते थे
पर ट्रेन में चल रहे खरार्टो से
कितनी भी खलल पड़ें नींद में
सहयात्री को मैं कुछ नहीं कह पाता
पर घर जब जाता हूं अब भी तो
पिता जी के साथ
चाय ठीक से नहीं पी पाता हूं
अपनों को सहना मुश्किल होता हैं
उनको हम अक्सर टोक देते हैं
दूजों से कहना और मुश्किल होता हैं
उन्हें कभी नहीं रोक पाते हैं
कुत्तोंं के भोंकने या टैफिक के शोर से
रात को नींद टूट जाये तो
तो हम कुछ नहीं कर सकते
न किसी को नखरे दिखा सकते
न किसी से शिकायत कर सकते
बस अपनों पर ही हमारा जोर चलता है !