इससे नशा होता है
दिमाग भी भ्रष्ट हो जाता है
कभी-कभार गम हल्का हो जाए
पर कहीं सिर बोझिल भी हो जाता है
कड़वाहट में खुद को विस्मृत कर
किसी दूसरा दुनिया में चले जाते हैं
भूल कर यथार्थ
सुरुर के स्वप्न-लोक में
डगमगाते पैर और हाथ
थक-कर बड़बड़ाते हुए
सो जाते हैं
नींद भी नहीं आती
बस सुध-बुध खोकर पड़े रहते हैं
ऑंखें मलते हुए उठते हैं जब
ग्लानि होती है -
अब नहीं पीएंगे
शाम आती है -
फिर वही दोस्त, वही बोतल
और वही बहाना -
''थोड़ी-सी---- बस थोड़ी-सी''
शराब पीने लगती है हमें
जिसे हमने पीना शुरु किया था – कभी।
Wednesday, June 30, 2010
Tuesday, June 29, 2010
कोल्हू के बैल और बछड़े
बच्चों का होम-वर्क
बीबी का हाउस-वर्क
साहब का आफिस-वर्क :
सभी मशीन बने हुए हैं
मोबाइल की क्लॉक से चलते
स्कूली प्रोजेक्ट बनाते
किचन मै और आफिस मै
सब घालमेल है
कैरियर और फैमिली मै
सबकी बनी रेल है।
जुटे हैं परिवार के
सारे लोग
समाज में अपना
कद बढ़ाने में
साथ रोटी नहीं खाते
साथ गप नहीं लड़ाते
हॉं….
देख लेते हैं
सासबहू जैसे सीरियल
साथ-साथ
और कर लेते है
सुबह का योगा
इडियट बॉक्स के सामने बैठकर
दिन-भर जिंदगी की
वर्कशाप मे खटने के लिए।
बीबी का हाउस-वर्क
साहब का आफिस-वर्क :
सभी मशीन बने हुए हैं
मोबाइल की क्लॉक से चलते
स्कूली प्रोजेक्ट बनाते
किचन मै और आफिस मै
सब घालमेल है
कैरियर और फैमिली मै
सबकी बनी रेल है।
जुटे हैं परिवार के
सारे लोग
समाज में अपना
कद बढ़ाने में
साथ रोटी नहीं खाते
साथ गप नहीं लड़ाते
हॉं….
देख लेते हैं
सासबहू जैसे सीरियल
साथ-साथ
और कर लेते है
सुबह का योगा
इडियट बॉक्स के सामने बैठकर
दिन-भर जिंदगी की
वर्कशाप मे खटने के लिए।
Monday, June 28, 2010
गर्मी बहुत है
नींद नहीं आती है
करवटें बदलते
रात गुजर जाती है
भीग जाता है तकिया
बालों की बूँदों से
पसीने में
फिर भी अधमुँदी आंखों में
जब आता है सपना
उस पड़ोस वाली झुग्गी का
जहां न बिजली है
न पंखा है
न पानी है,
तो मैं डरता हुआ
सो जाता हूँ
कहीं मेरे घर की
बत्ती-पानी भी
गुल न हो जाए।
करवटें बदलते
रात गुजर जाती है
भीग जाता है तकिया
बालों की बूँदों से
पसीने में
फिर भी अधमुँदी आंखों में
जब आता है सपना
उस पड़ोस वाली झुग्गी का
जहां न बिजली है
न पंखा है
न पानी है,
तो मैं डरता हुआ
सो जाता हूँ
कहीं मेरे घर की
बत्ती-पानी भी
गुल न हो जाए।
Friday, June 4, 2010
चरवैति चरवैति
बैठे हुए छत की मुंडेर पर
या खिड़की पर
या फिर बाहर-पत्थर की बेंच पर
देखता हूँ मैं
आती-जाती गाडि़यों को
भागती-दौड़ती जिंदगानी में।
रिक्शें पर बैठी मोटी औरतें
और उन्हें खींचता दुर्बल-सा पुरूष
आकाश पर छितराये बादल
दूर ऊँचाई पर उड़ते कौए
तरह-तरह की आवाजें
झगड़ती पड़ोसिनें
साइरन की लंबी चीत्कार
लगता है जैसे यही सब कुछ
अंदर चल रहा हो मन मे
ट्रैफिक की तरह निरंतर
विचारों का जंजाल।
कितना कठिन है
साक्षी बनना
और ब्ैठना शांत
जब चारों तरफ कोलाहल हो
दुनियादारी की।
थककर शांति – यह तो मजबूरी है
यात्रा की जरूरत ही नहीं- यह मजबूती है।
जब शरीर हो कमजोर
तो मजबूती और मजबूरी
एक हो जाती है
कुछ समझ में नहीं आता
बैठ जाएं भीड़ मे
कुचलने के लिए
या दौड़ते रहें
निरर्थक और निरुद्देश्य।
या खिड़की पर
या फिर बाहर-पत्थर की बेंच पर
देखता हूँ मैं
आती-जाती गाडि़यों को
भागती-दौड़ती जिंदगानी में।
रिक्शें पर बैठी मोटी औरतें
और उन्हें खींचता दुर्बल-सा पुरूष
आकाश पर छितराये बादल
दूर ऊँचाई पर उड़ते कौए
तरह-तरह की आवाजें
झगड़ती पड़ोसिनें
साइरन की लंबी चीत्कार
लगता है जैसे यही सब कुछ
अंदर चल रहा हो मन मे
ट्रैफिक की तरह निरंतर
विचारों का जंजाल।
कितना कठिन है
साक्षी बनना
और ब्ैठना शांत
जब चारों तरफ कोलाहल हो
दुनियादारी की।
थककर शांति – यह तो मजबूरी है
यात्रा की जरूरत ही नहीं- यह मजबूती है।
जब शरीर हो कमजोर
तो मजबूती और मजबूरी
एक हो जाती है
कुछ समझ में नहीं आता
बैठ जाएं भीड़ मे
कुचलने के लिए
या दौड़ते रहें
निरर्थक और निरुद्देश्य।
छत की मुंडेर पर
या खिड़की पर बैठे
या बाहर पत्थर की बेंच पर से
देखना आती-जाती गाडि़यों को
भागती-दौड़ती जिंदगानी में
रिक्शें पर बैठी मोटी औरतें
और उन्हें खींचता दुर्बल-सा पुरूष
आकाश पर छितराये बादल
दूर ऊँचाई पर उड़ते कौए
तरह-तरह की आवाजें
झगड़ती पड़ोसिनें
साइरन की लंबी चीत्कार
जैसे यही सब कुछ अंदर चल रहा हो
ट्रैफिक की तरह निरंतर
विचारों का जंजाल
मन के भीतर।
साक्षी बनना कितना कठिन है
कैसे बैठें शांत
जब चारों तरफ कोलाहल हो
दुनियादारी की।
थककर शांति – यह तो मजबूरी है
यात्रा की जरूरत ही नहीं- यह मजबूती है।
जब शरीर हो कमजोर
तो मजबूती और मजबूरी
एक हो जाती है
कुछ समझ में नहीं आता
इस भाग-दौड़ में बैठ जायें- कुचलने के लिए
या दौड़ते रहें, निरर्थक और निरुद्देश्य।
या खिड़की पर बैठे
या बाहर पत्थर की बेंच पर से
देखना आती-जाती गाडि़यों को
भागती-दौड़ती जिंदगानी में
रिक्शें पर बैठी मोटी औरतें
और उन्हें खींचता दुर्बल-सा पुरूष
आकाश पर छितराये बादल
दूर ऊँचाई पर उड़ते कौए
तरह-तरह की आवाजें
झगड़ती पड़ोसिनें
साइरन की लंबी चीत्कार
जैसे यही सब कुछ अंदर चल रहा हो
ट्रैफिक की तरह निरंतर
विचारों का जंजाल
मन के भीतर।
साक्षी बनना कितना कठिन है
कैसे बैठें शांत
जब चारों तरफ कोलाहल हो
दुनियादारी की।
थककर शांति – यह तो मजबूरी है
यात्रा की जरूरत ही नहीं- यह मजबूती है।
जब शरीर हो कमजोर
तो मजबूती और मजबूरी
एक हो जाती है
कुछ समझ में नहीं आता
इस भाग-दौड़ में बैठ जायें- कुचलने के लिए
या दौड़ते रहें, निरर्थक और निरुद्देश्य।
Subscribe to:
Posts (Atom)