दर्द हुआ मेरे कान में
तो इधर-उधर भागा
जिसने जो नुस्खा बताया
वही अपनाया
उस दौरान लगता था
पूरे शरीर में मानो
कान ही हो सब कुछ।
कितने सारे टैस्ट कराते हैं
हम किसी रोग में
उसकी ठीक वजह
जानने के लिए
पर क्यूँ नहीं सोचते
वैसे ही संजीदगी से
गरीबी-भुखमरी की
खतरनाक बीमारियों के बारे मे
और वंचितों-उपेक्षितों को
सरकारी भीख की
मामूली मल्हमपट्टी लगाकर
टरका देते हैं
सड़क की धूल फाकने के लिए
किस्मत की खाक छानने के लिए।
डॉक्टर भी नही हैं
नर्सें भी नहीं हैं
बेबस रोगी-ही-रोगी दिखते हैं बस
सामाजिक महामारी फैली है चारों ओर
यह कैसा अस्पताल है !
यह कैसा सूरतेहाल है !
Thursday, February 25, 2010
आस्था का विज्ञापन
ऐ भई !
भोर हो गई
नींद से जगो
डुगडुगी बज रही है
बाबा का मॉल खुला है
हर माल ले लो सिर्फ सौ रूपये में
अंजन आंखों के लिए
मंजन दांतों के लिए
तेल मसाज के लिए
चूरन हाजमे के लिए ।
हमारे बाबा ऑल-इन-वन हैं
गुरू-बापू-स्वामी-अम्मा
हरफनमौला और मस्तमौला-
बंदर के करतब सिखाते हैं
सस्ता लंगर खिलाते हैं
जनरल नॉलिज की अटपटी बातें बताते हैं
चटपटे जोक्स सुनाते हैं
सेहत के लिए खूब हँसाते हैं
और कभी-कभार जादू भी दिखाते हैं।
वे कमाल है
असंख्य श्री के सरनेम वाली
महान आत्मा हैं
उनमें कई आत्माएं हैं
दशानन की तरह
उनके कई मुखौटे हैं
सर्कस का मदारी
मंदिर का पुजारी
दुकान का पंसारी
धंधे का व्यापारी
…………
…………..
पर बरखुरदार , खबरदार !
मॉल के बाहर ही खड़े रहना
स्मॉल लोगों का
अंदर आना मना है
आज विशेष योग-कक्षा चल रही है
नेताओं और अभिनेताओं के लिए
डॉक्टर और इंजीनियरों के लिए।
भोर हो गई
नींद से जगो
डुगडुगी बज रही है
बाबा का मॉल खुला है
हर माल ले लो सिर्फ सौ रूपये में
अंजन आंखों के लिए
मंजन दांतों के लिए
तेल मसाज के लिए
चूरन हाजमे के लिए ।
हमारे बाबा ऑल-इन-वन हैं
गुरू-बापू-स्वामी-अम्मा
हरफनमौला और मस्तमौला-
बंदर के करतब सिखाते हैं
सस्ता लंगर खिलाते हैं
जनरल नॉलिज की अटपटी बातें बताते हैं
चटपटे जोक्स सुनाते हैं
सेहत के लिए खूब हँसाते हैं
और कभी-कभार जादू भी दिखाते हैं।
वे कमाल है
असंख्य श्री के सरनेम वाली
महान आत्मा हैं
उनमें कई आत्माएं हैं
दशानन की तरह
उनके कई मुखौटे हैं
सर्कस का मदारी
मंदिर का पुजारी
दुकान का पंसारी
धंधे का व्यापारी
…………
…………..
पर बरखुरदार , खबरदार !
मॉल के बाहर ही खड़े रहना
स्मॉल लोगों का
अंदर आना मना है
आज विशेष योग-कक्षा चल रही है
नेताओं और अभिनेताओं के लिए
डॉक्टर और इंजीनियरों के लिए।
Wednesday, February 24, 2010
हम छोड़ चलें हैं मेहफिल को
दो दोस्त थे
साथ – साथ खाते , बतियाते और रहते
वक्त गुजरा
दोनों अपने-अपने काम-काज में
व्यस्त हो गए
उसका ट्रांसफर हो गया
और उनकी जगहें बदल गईं ।
अभी भी उनकी बातचीत होती
वह थोड़ा जिद्दी थी या तो अब उससे
ठीक से बात न करती
या उसको चिढ़ाती
वह कोशिश करता रहता
टूटता- रूठता
पर खुद ही मान जाता !
पुरानी जगह वाले को
कोई और नया दोस्त
मिल गया था
खेल चल ही रहा था
तिकड़ी का
इतने में न जाने क्या हुआ
बिखर गई
नयी दोस्ती की खुशफहमी
अब वह पुराले दोस्त के पास
आना चाहती है
जो इस दुनिया से ही
उठ चुका है
काश !
जीते जी रिश्ते की कद्र की होती ।
साथ – साथ खाते , बतियाते और रहते
वक्त गुजरा
दोनों अपने-अपने काम-काज में
व्यस्त हो गए
उसका ट्रांसफर हो गया
और उनकी जगहें बदल गईं ।
अभी भी उनकी बातचीत होती
वह थोड़ा जिद्दी थी या तो अब उससे
ठीक से बात न करती
या उसको चिढ़ाती
वह कोशिश करता रहता
टूटता- रूठता
पर खुद ही मान जाता !
पुरानी जगह वाले को
कोई और नया दोस्त
मिल गया था
खेल चल ही रहा था
तिकड़ी का
इतने में न जाने क्या हुआ
बिखर गई
नयी दोस्ती की खुशफहमी
अब वह पुराले दोस्त के पास
आना चाहती है
जो इस दुनिया से ही
उठ चुका है
काश !
जीते जी रिश्ते की कद्र की होती ।
Monday, February 22, 2010
मिशन का शमशान
शुरू होती है
कोई भी संस्था
किसी खास मकसद से
इक महत्वाकांक्षा होती है किसी की
सपना कुछ नया करने का
पर जैसे जैसे वक्त गुजरता है
उसकी अंर्तआत्मा से अहम
हो जाते हैं बाहरी कपड़े
कितनी शाखाएं विदेश में
मैम्बर्स में :
कितने इंजीनियर और कितने डॉक्टर
संख्या से संस्था का विकास ऑंकते हैं ।
संस्था को चलाना ही
मकसद हो जाता है
फाइनंस-फंड-हाउसकीपिंग
और स्टाफ-मीटिंग में
उलझ जाते हैं
कार्यक्रम रखने पड़ते हैं
अस्तित्व को बचाने के लिए
और खुद को साबित करने के लिए।
जब मूल संस्थापक
चला जाता है दुनिया छोड़कर
तो दिशा ही बदल जाती है
किताबों और फोटो में
सीमित हो जाती है संस्था
धीरे धीरे बिखर जाती है
घुटन भी जरूर होती होगी
भीतर के कुछ लोगों को
किंतु किसी राह पर
बहुत आगे निकल जाने के बाद
वापिस मुड़ने के लिए
मजबूत कलेजा चाहिए ।
नियमावली की जकड़न में
कट्टर -कैडर तो बन सकते है
पर सार्थक कुछ भी
नहीं किया जा सकता ।
कोई भी संस्था
किसी खास मकसद से
इक महत्वाकांक्षा होती है किसी की
सपना कुछ नया करने का
पर जैसे जैसे वक्त गुजरता है
उसकी अंर्तआत्मा से अहम
हो जाते हैं बाहरी कपड़े
कितनी शाखाएं विदेश में
मैम्बर्स में :
कितने इंजीनियर और कितने डॉक्टर
संख्या से संस्था का विकास ऑंकते हैं ।
संस्था को चलाना ही
मकसद हो जाता है
फाइनंस-फंड-हाउसकीपिंग
और स्टाफ-मीटिंग में
उलझ जाते हैं
कार्यक्रम रखने पड़ते हैं
अस्तित्व को बचाने के लिए
और खुद को साबित करने के लिए।
जब मूल संस्थापक
चला जाता है दुनिया छोड़कर
तो दिशा ही बदल जाती है
किताबों और फोटो में
सीमित हो जाती है संस्था
धीरे धीरे बिखर जाती है
घुटन भी जरूर होती होगी
भीतर के कुछ लोगों को
किंतु किसी राह पर
बहुत आगे निकल जाने के बाद
वापिस मुड़ने के लिए
मजबूत कलेजा चाहिए ।
नियमावली की जकड़न में
कट्टर -कैडर तो बन सकते है
पर सार्थक कुछ भी
नहीं किया जा सकता ।
विन-विन
न चिढ़ना है
न चिढ़ाना है,
न रोना है
न रूलाना है,
न हारना है
न हराना है,
न खुद डरना है ,
न किसी को डराना है.
जीतना है और जिताना है
हँसना है और हँसाना है
चलना है और चलाना है
जीना है और जिलाना है .
न चिढ़ाना है,
न रोना है
न रूलाना है,
न हारना है
न हराना है,
न खुद डरना है ,
न किसी को डराना है.
जीतना है और जिताना है
हँसना है और हँसाना है
चलना है और चलाना है
जीना है और जिलाना है .
Friday, February 19, 2010
देख तमाशा इंडिया का
सरकार के सफेद हाथी
और जनता की चींटियों के
दरम्यान हुआ : इक फुटबाल मैच
हाथी ने बाल्टियां भरकर दाल पी
वह और मोटा हो गया
चींटी को मँहगाई की वजह से
इक चम्मच शक्कर भी
नसीब न हुई
और वह बेचारी दुबली हो गयी.
कॉमन आदमी की वैल्थ
और गरीब मजदूरों के खून से
सजे-सँवरे स्टेडियम मे
टीमों के उतरने से पहले ही
सबने मान लिया था-
जीतेगा तो हाथी ही
पर उन पिद्दी चीटियों ने
औकात सिखा दी
सूँड और कानों में घुसकर
हाथी को नानी याद दिला दी.
----------------------------------- ------
खेल खेल की आड़ में , लूट सके जो लूट
स्टेशन पर रह जायेगा , रेल गई जो छूट
--------------------------------------------
कॉमन आदमी की वैल्थ
खेलेंगे हम कॉमन वैल्थ.
-------------------------------------------
शोर मचा है , बजेंगे ढोल
मैच मे हम , करेंगे गोल
दिल्ली की तू जय बोल
आम आदमी होगा गोल.
------------------------------------------------------
जीतेगा भई जीतेगा
ठेकेदार जीतेगा
हारेगा भई हारेगा
कॉमन-मैन हारेगा.
-----------------------------------------------------
और जनता की चींटियों के
दरम्यान हुआ : इक फुटबाल मैच
हाथी ने बाल्टियां भरकर दाल पी
वह और मोटा हो गया
चींटी को मँहगाई की वजह से
इक चम्मच शक्कर भी
नसीब न हुई
और वह बेचारी दुबली हो गयी.
कॉमन आदमी की वैल्थ
और गरीब मजदूरों के खून से
सजे-सँवरे स्टेडियम मे
टीमों के उतरने से पहले ही
सबने मान लिया था-
जीतेगा तो हाथी ही
पर उन पिद्दी चीटियों ने
औकात सिखा दी
सूँड और कानों में घुसकर
हाथी को नानी याद दिला दी.
----------------------------------- ------
खेल खेल की आड़ में , लूट सके जो लूट
स्टेशन पर रह जायेगा , रेल गई जो छूट
--------------------------------------------
कॉमन आदमी की वैल्थ
खेलेंगे हम कॉमन वैल्थ.
-------------------------------------------
शोर मचा है , बजेंगे ढोल
मैच मे हम , करेंगे गोल
दिल्ली की तू जय बोल
आम आदमी होगा गोल.
------------------------------------------------------
जीतेगा भई जीतेगा
ठेकेदार जीतेगा
हारेगा भई हारेगा
कॉमन-मैन हारेगा.
-----------------------------------------------------
कलम की किलकारी
सड़क पर पैदल चलते हुए
किसी किताब को पढते हुए
कोई गीत सुनते हुए
नींद में सपना देखते हुए
या फिर यूँ ही उदास बैठे हुए
कोई बीज पड़ जाता है
अवचेतन मन में
और गर्भ ठहर जाता है.
न जाने कितना वक्त लगे
उसे पकने में
किंतु प्रसव पीड़ा गहरी हो जाए
तभी डिलीवरी होगी
और अपनी नवजात गुडि़या को
गोद मे पाकर ही
मुझे तृप्ति मिलेगी.
मेरी रचना चाहे
तुम्हें कविता न लगे
पर वो बहुत सुंदर है
और समझभरी भी,
क्योंकि उसे मैंने जन्मा है
अपनी कोख से
और उसका कोमल स्पर्श
महसूस किया है
रोम-रोम की गहराईयों तक
मैंने अपने भीतरण.
वो मेरा अहसास है
वो मेरा जज्बात है
वो मेरा हिस्सा है
वो मेरा किस्सा है.
किसी किताब को पढते हुए
कोई गीत सुनते हुए
नींद में सपना देखते हुए
या फिर यूँ ही उदास बैठे हुए
कोई बीज पड़ जाता है
अवचेतन मन में
और गर्भ ठहर जाता है.
न जाने कितना वक्त लगे
उसे पकने में
किंतु प्रसव पीड़ा गहरी हो जाए
तभी डिलीवरी होगी
और अपनी नवजात गुडि़या को
गोद मे पाकर ही
मुझे तृप्ति मिलेगी.
मेरी रचना चाहे
तुम्हें कविता न लगे
पर वो बहुत सुंदर है
और समझभरी भी,
क्योंकि उसे मैंने जन्मा है
अपनी कोख से
और उसका कोमल स्पर्श
महसूस किया है
रोम-रोम की गहराईयों तक
मैंने अपने भीतरण.
वो मेरा अहसास है
वो मेरा जज्बात है
वो मेरा हिस्सा है
वो मेरा किस्सा है.
Thursday, February 18, 2010
जुर्म कुबूल है !
ऑफीसर क्लब में
मेरे पैरों की चप्पले देखकर
टोकने वाले जूते टाईधारी सहकर्मी के बारे में
जब मैंने अष्टावक्री टोन मे
“चमार “ कह दिया
तो तुम्हें दिक्कत हुई
सेठ-अफसर की कोठी में
चल रही दलाली को
समझाने के लिए
मैंने उसे “ रंडी का कोठा “ लिखा
तो उन्हें बुरा लगा
और किसी को कुतर्क के लिए
“ बकवास “ कहकर फटकारा
तो मुझे शालीनता अपनाने की
नसीहते मिलीं।
लीडरों की डीलरशिप में
तुम वकील हो
और वो जज
तो फैसला तो हो ही चुका।
मेरे पैरों की चप्पले देखकर
टोकने वाले जूते टाईधारी सहकर्मी के बारे में
जब मैंने अष्टावक्री टोन मे
“चमार “ कह दिया
तो तुम्हें दिक्कत हुई
सेठ-अफसर की कोठी में
चल रही दलाली को
समझाने के लिए
मैंने उसे “ रंडी का कोठा “ लिखा
तो उन्हें बुरा लगा
और किसी को कुतर्क के लिए
“ बकवास “ कहकर फटकारा
तो मुझे शालीनता अपनाने की
नसीहते मिलीं।
लीडरों की डीलरशिप में
तुम वकील हो
और वो जज
तो फैसला तो हो ही चुका।
Wednesday, February 17, 2010
लोगों का काम है कहना
तुम इतनी जिद्दी क्यूँ हो
या फिर जिद्दी होते हुए
इतनी प्यारी क्यूँ हो।
जिद तो ठीक है लेकिन
किसी पल बिना तोड़े जिद
दे सकती हो अहसास
जिद तोड़ने का।
तुम कभी बतालाओगी मुझसे
उसी तरह,
जब संकोच के बावजूद
बेझिझक जता देती थी तुम
अपनापन कुछ ही क्षणों में
जैसे रिश्ता कोई जन्मों का हो।
मेरी वेदना का दर्द भी
हिला न पाया तुम्हें।
यदि यह तुम्हारे मन से होता
तो मंजूर होता भी
पर यह तो समाज से डरना हुआ
और वो भी उस समाज से
जिसकी न कोई रीढ़ है,
जिसकी न कोई नीति है।
या फिर जिद्दी होते हुए
इतनी प्यारी क्यूँ हो।
जिद तो ठीक है लेकिन
किसी पल बिना तोड़े जिद
दे सकती हो अहसास
जिद तोड़ने का।
तुम कभी बतालाओगी मुझसे
उसी तरह,
जब संकोच के बावजूद
बेझिझक जता देती थी तुम
अपनापन कुछ ही क्षणों में
जैसे रिश्ता कोई जन्मों का हो।
मेरी वेदना का दर्द भी
हिला न पाया तुम्हें।
यदि यह तुम्हारे मन से होता
तो मंजूर होता भी
पर यह तो समाज से डरना हुआ
और वो भी उस समाज से
जिसकी न कोई रीढ़ है,
जिसकी न कोई नीति है।
Monday, February 15, 2010
बगावत
मेरे और उनके बीच
लोहे की मोटो सलाखें हैं
मुझे कैदी वो लगते हैं
और उन्हें मैं ,
पर चूँकि उनकी जमात ज्यादा है
तो आवाज़ तो उन्ही की सुनाई देगी .
समाज की समझ
और परंपरा की इज्जत को
मुझसे खतरा है.
वो मुझे सूली पर लटका देंगें
उनसे अलग सोचने के जुर्म में
और अगर फिर भी कुछ दम
बाकी रहा मुझमें
तो तानों के पत्थर मार-मार कर
मुझे खदेड़ देंगें
पागलघर में,
जहां से मेरी चीखें
उनकी मीठी नींद में
खलल नहीं डालेंगी.
लोहे की मोटो सलाखें हैं
मुझे कैदी वो लगते हैं
और उन्हें मैं ,
पर चूँकि उनकी जमात ज्यादा है
तो आवाज़ तो उन्ही की सुनाई देगी .
समाज की समझ
और परंपरा की इज्जत को
मुझसे खतरा है.
वो मुझे सूली पर लटका देंगें
उनसे अलग सोचने के जुर्म में
और अगर फिर भी कुछ दम
बाकी रहा मुझमें
तो तानों के पत्थर मार-मार कर
मुझे खदेड़ देंगें
पागलघर में,
जहां से मेरी चीखें
उनकी मीठी नींद में
खलल नहीं डालेंगी.
Sunday, February 14, 2010
प्यार का बाजार
प्रेम कहां है, प्रेम क्या है, प्रेम क्यूं है
वहां भी नहीं, जहां पहरेदार खड़े हैं
वहां भी नहीं, जहां पार्क में जोड़े लेटे हैं
वहां भी नहीं, जहां घर में बच्चे हैं
वहां भी नहीं, जहां जंगल में अकेले हैं।
प्रेम होता है या नहीं होता है
इसकी कोई खास वजह नहीं होती
इसकी कोई खास जगह नहीं होती
प्रेम नाप-तौल या गणित नहीं होता
न ही यह बाजार की नौटंकी है
न ही यह खेल-कूद है तन का।
यह तो मुक्ति का पैगाम है
यह तहजीब है इंसान की
उसकी रूह की जरूरत है।
प्रेम उत्थान का पथ है, पतन का नहीं
प्रेम शांति का पथ है कलह का नहीं
प्रेम संकीर्णता नहीं, विस्तार का प्रतीक है।
प्रेम की सीमाएं नहीं होती
प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र हैं: संभोग और विवाह
पर यही केवल प्रेम नहीं है
प्रेम है- ममता,करूणा और संवेदना
भावनाओं और विचारों का संगम
प्रेम संयोग और वियोग है।
प्रेम पवित्र शब्द है
इसे विकृत मत बनाओ
व्यापार का त्यौहार नहीं है प्रेम
यह प्रेमी के दिल की पुकार है
मन मंदिर है
इश्क इबादत है।
प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती
प्रेम की कोई भाषा नहीं होती
ताजमहल बनाकर उड़ाया था मजाक इक शहंशाह ने
अब प्रेम के संत का तुम मजाक मत उड़ाओं।
प्रेम करो किसी से भी
खुले मन से करो
और उसकी आजादी के लिए।
प्रेम करो:
खुद से, खुदा से,
कुदरत से और उसके बंदों से।
प्रेम को प्रेम ही रहने दो
उसे राजनीति के दलदल में न घसीटो।
ढाई अक्षर ही काफी है
उसे चौदह फरवरी मत बनाओ।
वहां भी नहीं, जहां पहरेदार खड़े हैं
वहां भी नहीं, जहां पार्क में जोड़े लेटे हैं
वहां भी नहीं, जहां घर में बच्चे हैं
वहां भी नहीं, जहां जंगल में अकेले हैं।
प्रेम होता है या नहीं होता है
इसकी कोई खास वजह नहीं होती
इसकी कोई खास जगह नहीं होती
प्रेम नाप-तौल या गणित नहीं होता
न ही यह बाजार की नौटंकी है
न ही यह खेल-कूद है तन का।
यह तो मुक्ति का पैगाम है
यह तहजीब है इंसान की
उसकी रूह की जरूरत है।
प्रेम उत्थान का पथ है, पतन का नहीं
प्रेम शांति का पथ है कलह का नहीं
प्रेम संकीर्णता नहीं, विस्तार का प्रतीक है।
प्रेम की सीमाएं नहीं होती
प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र हैं: संभोग और विवाह
पर यही केवल प्रेम नहीं है
प्रेम है- ममता,करूणा और संवेदना
भावनाओं और विचारों का संगम
प्रेम संयोग और वियोग है।
प्रेम पवित्र शब्द है
इसे विकृत मत बनाओ
व्यापार का त्यौहार नहीं है प्रेम
यह प्रेमी के दिल की पुकार है
मन मंदिर है
इश्क इबादत है।
प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती
प्रेम की कोई भाषा नहीं होती
ताजमहल बनाकर उड़ाया था मजाक इक शहंशाह ने
अब प्रेम के संत का तुम मजाक मत उड़ाओं।
प्रेम करो किसी से भी
खुले मन से करो
और उसकी आजादी के लिए।
प्रेम करो:
खुद से, खुदा से,
कुदरत से और उसके बंदों से।
प्रेम को प्रेम ही रहने दो
उसे राजनीति के दलदल में न घसीटो।
ढाई अक्षर ही काफी है
उसे चौदह फरवरी मत बनाओ।
Wednesday, February 10, 2010
अति का भला न बोलना
बहती हुई नदी के किनारे
टहलते हुए मन खुश होता है
जीवन के प्रवाह को
उसमें देखता हुआ ,
उफनती हुई नदी से डर लगता है
और सूखी हुई नदी तो मन को
उदासी में ही धकेल देती है
उत्साह , भय और निराशा के
इन आयामों कव खुद में समेटे
यह वही नदी .
सृष्टि के तत्वों में संतुलन
बहुत जरुरी है
इनके अति-रूपों से
घबराहट होती है
बाढ़ हो या रेगिस्तान
ज्वालामुखी हो या तूफ़ान .
सौम्यता का आधार है
समता और सरलता
संगीत के लिए
वाद्य-यन्त्र के तारों की
मर्यादा जरुरी है .
बीच का रास्ता
समझौता नहीं
समझ का प्रतीक है
कुछ भी नहीं और
सब कुछ के
मध्य ही
यह सुन्दर संसार है .
टहलते हुए मन खुश होता है
जीवन के प्रवाह को
उसमें देखता हुआ ,
उफनती हुई नदी से डर लगता है
और सूखी हुई नदी तो मन को
उदासी में ही धकेल देती है
उत्साह , भय और निराशा के
इन आयामों कव खुद में समेटे
यह वही नदी .
सृष्टि के तत्वों में संतुलन
बहुत जरुरी है
इनके अति-रूपों से
घबराहट होती है
बाढ़ हो या रेगिस्तान
ज्वालामुखी हो या तूफ़ान .
सौम्यता का आधार है
समता और सरलता
संगीत के लिए
वाद्य-यन्त्र के तारों की
मर्यादा जरुरी है .
बीच का रास्ता
समझौता नहीं
समझ का प्रतीक है
कुछ भी नहीं और
सब कुछ के
मध्य ही
यह सुन्दर संसार है .
Tuesday, February 9, 2010
फर्क
औरत पीछे बैठे सीट पर
या चलाये स्कूटर
क्या फर्क पड़ता है-
हम बाज़ार तो घूम आये.
औरत बाँझ हो
या आदमी नपुंसक
क्या फर्क पड़ता है-
हम बेऔलाद ही रहे.
औरत घर संभाले
या काम करे दफ्तर में
क्या फर्क पड़ता है-
हमें घर तो चलाना है.
औरत नीचे रहे बिस्तर में
या ऊपर
क्या फर्क पड़ता है –
हमें विवाह का निर्वाह तो करना है.
फिर क्यूँ चाहियें
औरत को ही-
पिता, भाई , पति या पुत्र
अपने इर्द-गिर्द
पहचान और हिफाज़त के लिए.
या चलाये स्कूटर
क्या फर्क पड़ता है-
हम बाज़ार तो घूम आये.
औरत बाँझ हो
या आदमी नपुंसक
क्या फर्क पड़ता है-
हम बेऔलाद ही रहे.
औरत घर संभाले
या काम करे दफ्तर में
क्या फर्क पड़ता है-
हमें घर तो चलाना है.
औरत नीचे रहे बिस्तर में
या ऊपर
क्या फर्क पड़ता है –
हमें विवाह का निर्वाह तो करना है.
फिर क्यूँ चाहियें
औरत को ही-
पिता, भाई , पति या पुत्र
अपने इर्द-गिर्द
पहचान और हिफाज़त के लिए.
Monday, February 8, 2010
हिन्दी की हालत
हम सोचते हैं हिन्दी में
उल्टा-पुल्टा अनुवाद करते मन के अंदर
अंग्रेजी में बोलते हैं टूटा-फूटा डिक्टेशन
टाइप किए हुए को
कागज पर और कम्प्यूटर पर
कॉंटते-छॉंटते, ग्रामर को सँवारते
वाक्यों को इधर-उधर उठाते-बैठाते
सही शब्दों के सही अर्थ
डिक्शनरी में तलाशते
साइन करने के बाद भी लगता
कुछ छूटा तो नहीं
व्याकरण सही थी क्या
फिर भेज देते खत उसको
जो पढ़ने के बाद
मतलब समझने के लिए
फिर डिक्शनरी खँगालता है
और अनुवाद करते हुए
मन में मजमून बैठाता है।
हिन्दी बोलने में हया
अंग्रेजी बोलने में अकड़ महसूस होती है
शिष्टता जताने में: थैंक्यू और सॉरी
किन्तु गुस्सा जताने में गाली हिन्दी में ही देते हैं
ताकि दूसरा समझ भी तो सके।
लेक्चर देना हो मैनेजमेंट पर तो अंग्रेजी में
किन्तु गप्प लड़ानी हो तो हिन्दी ही भाती है।
जिस भाषा में
मॉं को मॉम, बाप को पॉप या डैडी
कहना पड़े
और अंकल से रिश्ते का पता न लगे
इन-लॉ से ससुराल को समझना पड़े
उस भाषा में कल और होगा: के लिए
चाहे अलग-अलग शब्द हों
तो भी ......
दर्द के लिए, प्रेम के लिए
गीत के लिए, हँसी के लिए
भाषा तो अपनी ही काम आती है।
कितने भी बड़े साहब हों
अफसर या मैनेजिंग डायरेक्टर
रिक्शा स्टैण्ड पर, किराया तय करते
प्लेटफार्म पर कुली से बहस करते
सब्जी खरीदते वक्त मोल-भाव करने के लिए
सभी को वंचितों की दरिद्र भाषा में उतरना पड़ता है।
वो अलग बात है कि हम वंचित होना नहीं चाहते।
कैरियर के लिए
पब्लिक स्कूल में
बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना है
उन्हें जानवरों और सब्जियों के नाम
अपनी भाषा में नहीं
परन्तु अंग्रेजी में जरूर मालूम हों
नजाकत के लिए तो
अब हिंगलिश भी आ गई है
कंधे उचकाकर
और मुँह बिचकाकर बोलने के लिए।
हम सचमुच मॉडर्न हो गए हैं
और भारत इण्डिया बन गया है
अब इसे अमरीका बनाने की तैयारी है।
बस इतना ही कहना है तुमसे
कुछ भी पढ़ो, लिखो, बोलो
पर सोचो जरूर हिन्दी में
और कभी-कभार गप्पें लड़ाया करो
गालियॉं भी दिया करो
अपनी भाषा में।
जिम्मेदारी हमारी भी है कि हम हिन्दी लिखें
जिम्मेदारी तुम्हारी भी है कि तुम हिन्दी पढ़ो
जिम्मेदारी हम सभी की है :
मातृभाषा हिन्दी को मॉं समझें।
उल्टा-पुल्टा अनुवाद करते मन के अंदर
अंग्रेजी में बोलते हैं टूटा-फूटा डिक्टेशन
टाइप किए हुए को
कागज पर और कम्प्यूटर पर
कॉंटते-छॉंटते, ग्रामर को सँवारते
वाक्यों को इधर-उधर उठाते-बैठाते
सही शब्दों के सही अर्थ
डिक्शनरी में तलाशते
साइन करने के बाद भी लगता
कुछ छूटा तो नहीं
व्याकरण सही थी क्या
फिर भेज देते खत उसको
जो पढ़ने के बाद
मतलब समझने के लिए
फिर डिक्शनरी खँगालता है
और अनुवाद करते हुए
मन में मजमून बैठाता है।
हिन्दी बोलने में हया
अंग्रेजी बोलने में अकड़ महसूस होती है
शिष्टता जताने में: थैंक्यू और सॉरी
किन्तु गुस्सा जताने में गाली हिन्दी में ही देते हैं
ताकि दूसरा समझ भी तो सके।
लेक्चर देना हो मैनेजमेंट पर तो अंग्रेजी में
किन्तु गप्प लड़ानी हो तो हिन्दी ही भाती है।
जिस भाषा में
मॉं को मॉम, बाप को पॉप या डैडी
कहना पड़े
और अंकल से रिश्ते का पता न लगे
इन-लॉ से ससुराल को समझना पड़े
उस भाषा में कल और होगा: के लिए
चाहे अलग-अलग शब्द हों
तो भी ......
दर्द के लिए, प्रेम के लिए
गीत के लिए, हँसी के लिए
भाषा तो अपनी ही काम आती है।
कितने भी बड़े साहब हों
अफसर या मैनेजिंग डायरेक्टर
रिक्शा स्टैण्ड पर, किराया तय करते
प्लेटफार्म पर कुली से बहस करते
सब्जी खरीदते वक्त मोल-भाव करने के लिए
सभी को वंचितों की दरिद्र भाषा में उतरना पड़ता है।
वो अलग बात है कि हम वंचित होना नहीं चाहते।
कैरियर के लिए
पब्लिक स्कूल में
बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना है
उन्हें जानवरों और सब्जियों के नाम
अपनी भाषा में नहीं
परन्तु अंग्रेजी में जरूर मालूम हों
नजाकत के लिए तो
अब हिंगलिश भी आ गई है
कंधे उचकाकर
और मुँह बिचकाकर बोलने के लिए।
हम सचमुच मॉडर्न हो गए हैं
और भारत इण्डिया बन गया है
अब इसे अमरीका बनाने की तैयारी है।
बस इतना ही कहना है तुमसे
कुछ भी पढ़ो, लिखो, बोलो
पर सोचो जरूर हिन्दी में
और कभी-कभार गप्पें लड़ाया करो
गालियॉं भी दिया करो
अपनी भाषा में।
जिम्मेदारी हमारी भी है कि हम हिन्दी लिखें
जिम्मेदारी तुम्हारी भी है कि तुम हिन्दी पढ़ो
जिम्मेदारी हम सभी की है :
मातृभाषा हिन्दी को मॉं समझें।
तरक्की का सफर
बहुत पहले लोग नंगे रहा करते थे
तब वे सीधे- सादे थे
प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या से परे
खुद ही में मस्त.
फिर कपडे पहनने लगा इंसान और
शिष्टाचार हावी होता गया उस पर
वह समझदार हो गया और
शायद थोड़ा चालाक भी
अपने दिल की बात को छुपाना
आ गया उसे.
वह मुखौटे बदलने लगा-
घर का अलग
ऑफिस का अलग
बात को टेढ़े तरीके से
कहने का हुनर सीख गया.
अब वह ठण्ड में न नहाने पर भी
उजली कमीज़ पहनकर
दोस्तों को भ्रम में दल देता है.
वो अब सभ्य हो गया है
हाथ से नहीं कांटे-छुरी से खाना खता है
बुफे वाली पार्टी में शामिल होकर और
यूरोपियन कोमोड पर बैठकर
उसकी अकड़ थोडा और बढ़ जाती है.
मैनीपुलेट कर लेता है
हालात और रिश्तों को.
अब अधनंगापन बढ़ रहा है
न पूरे कपडे , न पूरे दिगंबर
जो सबसे ज्यादा मुश्किल है
समझना और इसलिए शायद
डरावना लगता है.
तब वे सीधे- सादे थे
प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या से परे
खुद ही में मस्त.
फिर कपडे पहनने लगा इंसान और
शिष्टाचार हावी होता गया उस पर
वह समझदार हो गया और
शायद थोड़ा चालाक भी
अपने दिल की बात को छुपाना
आ गया उसे.
वह मुखौटे बदलने लगा-
घर का अलग
ऑफिस का अलग
बात को टेढ़े तरीके से
कहने का हुनर सीख गया.
अब वह ठण्ड में न नहाने पर भी
उजली कमीज़ पहनकर
दोस्तों को भ्रम में दल देता है.
वो अब सभ्य हो गया है
हाथ से नहीं कांटे-छुरी से खाना खता है
बुफे वाली पार्टी में शामिल होकर और
यूरोपियन कोमोड पर बैठकर
उसकी अकड़ थोडा और बढ़ जाती है.
मैनीपुलेट कर लेता है
हालात और रिश्तों को.
अब अधनंगापन बढ़ रहा है
न पूरे कपडे , न पूरे दिगंबर
जो सबसे ज्यादा मुश्किल है
समझना और इसलिए शायद
डरावना लगता है.
तरक्की का सफर
बहुत पहले लोग नंगे रहा करते थे
तब वे सीधे- सादे थे
प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या से परे
खुद ही में मस्त.
फिर कपडे पहनने लगा इंसान और
शिष्टाचार हावी होता गया उस पर
वह समझदार हो गया और
शायद थोड़ा चालाक भी
अपने दिल की बात को छुपाना
आ गया उसे.
वह मुखौटे बदलने लगा-
घर का अलग
ऑफिस का अलग
बात को टेढ़े तरीके से
कहने का हुनर सीख गया.
अब वह ठण्ड में न नहाने पर भी
उजली कमीज़ पहनकर
दोस्तों को भ्रम में दल देता है.
वो अब सभ्य हो गया है
हाथ से नहीं कांटे-छुरी से खाना खता है
बुफे वाली पार्टी में शामिल होकर और
यूरोपियन कोमोड पर बैठकर
उसकी अकड़ थोडा और बढ़ जाती है.
मैनीपुलेट कर लेता है
हालात और रिश्तों को.
अब अधनंगापन बढ़ रहा है
न पूरे कपडे , न पूरे दिगंबर
जो सबसे ज्यादा मुश्किल है
समझना और इसलिए शायद
डरावना लगता है.
तब वे सीधे- सादे थे
प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या से परे
खुद ही में मस्त.
फिर कपडे पहनने लगा इंसान और
शिष्टाचार हावी होता गया उस पर
वह समझदार हो गया और
शायद थोड़ा चालाक भी
अपने दिल की बात को छुपाना
आ गया उसे.
वह मुखौटे बदलने लगा-
घर का अलग
ऑफिस का अलग
बात को टेढ़े तरीके से
कहने का हुनर सीख गया.
अब वह ठण्ड में न नहाने पर भी
उजली कमीज़ पहनकर
दोस्तों को भ्रम में दल देता है.
वो अब सभ्य हो गया है
हाथ से नहीं कांटे-छुरी से खाना खता है
बुफे वाली पार्टी में शामिल होकर और
यूरोपियन कोमोड पर बैठकर
उसकी अकड़ थोडा और बढ़ जाती है.
मैनीपुलेट कर लेता है
हालात और रिश्तों को.
अब अधनंगापन बढ़ रहा है
न पूरे कपडे , न पूरे दिगंबर
जो सबसे ज्यादा मुश्किल है
समझना और इसलिए शायद
डरावना लगता है.
Friday, February 5, 2010
गुरु-सिख
मेरी लम्बी दाढ़ी देखकर
बच्चे मुझे बाबा कहते हैं
बड़े ज्ञानी और
सब मुझे बुज़ुर्ग समझते हैं.
टोकते हैं मजहबी ठेकेदार
मुझे पगड़ी न पहनने पर
कोसते हैं एनजीओ वाले समाजसेवी दोस्त
सरकारी नौकरी में होने पर और
ऑफिस वाले सहकर्मी
उनसे अलग सोच रखने पर.
भेड़ों की भीड़ में
शामिल नहीं होना मुझे और
न ही हांका जाना चाहता हूँ
कर्म-कांडी डंडों से .
विस्तृत गगन में आज़ाद परिंदे की तरह
उड़ना है मुझे
फ्रेम और संस्थाओं की कैद से
मुक्ति चाहिए मुझे
सीखते हुए खुद ही की रौशनी में
अंधेरों से जूझना है मुझे.
बच्चे मुझे बाबा कहते हैं
बड़े ज्ञानी और
सब मुझे बुज़ुर्ग समझते हैं.
टोकते हैं मजहबी ठेकेदार
मुझे पगड़ी न पहनने पर
कोसते हैं एनजीओ वाले समाजसेवी दोस्त
सरकारी नौकरी में होने पर और
ऑफिस वाले सहकर्मी
उनसे अलग सोच रखने पर.
भेड़ों की भीड़ में
शामिल नहीं होना मुझे और
न ही हांका जाना चाहता हूँ
कर्म-कांडी डंडों से .
विस्तृत गगन में आज़ाद परिंदे की तरह
उड़ना है मुझे
फ्रेम और संस्थाओं की कैद से
मुक्ति चाहिए मुझे
सीखते हुए खुद ही की रौशनी में
अंधेरों से जूझना है मुझे.
Wednesday, February 3, 2010
हम भी हैं
लोग मेरा सरनेम पूछते हैं या
फिर टटोलकर बायोडाटा
मेरी कैटेगरी जानना चाहते हैं
मुझे असुरक्षित महसूस कराने के लिए
आरक्षित होने के कारण
उनकी नज़रों में खटकता हूँ
जैसे कोई अपराधी हूँ मैं
उनकी जन्म-सिद्ध अधिकार की
रोटी का हिस्सा छीनता
अपने विशेषाधिकार से
क्या सर जमीन पर रगड़ने से
तुम चल सकते हो ?
और छाती -जांघ से तो तुम
चलने की सोच भी नहीं सकते ,
अपने दिमाग और दिल का इलाज कराओ
जो अहम् के नशे में ख़राब हो चुके हैं
हम हाथ-पाँव हैं समाजी-शरीर के
पैरों की बदौलत ही टिका पाते हो
अपना बोझ धरती पर और
हाथ से ही कौर दाल पाते हो रोटी की
जिसकी भूख हमें भी है
जिंदा रहने के लिए
टहलने-दौड़ने के लिए
हमें भी मजबूत रखो
समाज को लूला-लंगड़ा मत बनाओ
हमारा नाम मत पूछो
नाम में क्या रखा है
काम देखो
फिर टटोलकर बायोडाटा
मेरी कैटेगरी जानना चाहते हैं
मुझे असुरक्षित महसूस कराने के लिए
आरक्षित होने के कारण
उनकी नज़रों में खटकता हूँ
जैसे कोई अपराधी हूँ मैं
उनकी जन्म-सिद्ध अधिकार की
रोटी का हिस्सा छीनता
अपने विशेषाधिकार से
क्या सर जमीन पर रगड़ने से
तुम चल सकते हो ?
और छाती -जांघ से तो तुम
चलने की सोच भी नहीं सकते ,
अपने दिमाग और दिल का इलाज कराओ
जो अहम् के नशे में ख़राब हो चुके हैं
हम हाथ-पाँव हैं समाजी-शरीर के
पैरों की बदौलत ही टिका पाते हो
अपना बोझ धरती पर और
हाथ से ही कौर दाल पाते हो रोटी की
जिसकी भूख हमें भी है
जिंदा रहने के लिए
टहलने-दौड़ने के लिए
हमें भी मजबूत रखो
समाज को लूला-लंगड़ा मत बनाओ
हमारा नाम मत पूछो
नाम में क्या रखा है
काम देखो
Tuesday, February 2, 2010
अपने ही दुश्मन
मैं खड़ा था जूस की दुकान पर
एक दोस्त के साथ
दो गिलास बनाने का आर्डर देकर
पीछे से एक बुढ़िया आई
और चंद सिक्कों के लिए हाथ फैलाये
मैंने उससे पूछा जूस पियोगी
और उसके चेहरे पर ख़ुशी देखकर
तीसरे गिलास के लिए कहा
तो दुकान पर तैनात मजदूर ने
( वो मालिक तो कतई नहीं था )
नफरत की नज़र से देखा
क्यों होता है ऐसा वर्ग-संघर्ष
उन्हीं के बीच –
बेटे जनने के लिए
बहू को कोसती सास ,
मेकडोनाल्ड के गेट पर
अन्दर जाने से मुझे रोकता
मेरे कपड़ों को देखकर ,
अंग्रेजी किताबों के स्टाल पर खड़ा
हिंदी ही पढ़ सकने वाला सेल्स- बॉय
मेरे चेहरे को देखकर कहता
मन ही मन
" ये इंग्लिश की किताबें हैं "
एक दोस्त के साथ
दो गिलास बनाने का आर्डर देकर
पीछे से एक बुढ़िया आई
और चंद सिक्कों के लिए हाथ फैलाये
मैंने उससे पूछा जूस पियोगी
और उसके चेहरे पर ख़ुशी देखकर
तीसरे गिलास के लिए कहा
तो दुकान पर तैनात मजदूर ने
( वो मालिक तो कतई नहीं था )
नफरत की नज़र से देखा
क्यों होता है ऐसा वर्ग-संघर्ष
उन्हीं के बीच –
बेटे जनने के लिए
बहू को कोसती सास ,
मेकडोनाल्ड के गेट पर
अन्दर जाने से मुझे रोकता
मेरे कपड़ों को देखकर ,
अंग्रेजी किताबों के स्टाल पर खड़ा
हिंदी ही पढ़ सकने वाला सेल्स- बॉय
मेरे चेहरे को देखकर कहता
मन ही मन
" ये इंग्लिश की किताबें हैं "
Monday, February 1, 2010
बिक्री-घर
अफसर की कोठी
रंडी का कोठा
एक जगह जमीर बिकता है
दूजी जगह शारीर
दलाल भी दोनों जगह हैं
नाच दोनों जगह चलता है
मेक अप और मास्क के पीछे
खरीददारों के लिए
अफसर में कोई अल्हड लावण्य नहीं
उसके पास कोई बिस्तर भी नहीं
बस कुर्सी और कलम का कमाल है
कोठा कोठी से बड़ा है
वहां पेशा ईमानदारी से चलता है
पर कोठी का दाम बढ़ता जा रहा है
और कोठे को पुलिस वाले बंद कराते जा रहे हैं
रंडी का कोठा
एक जगह जमीर बिकता है
दूजी जगह शारीर
दलाल भी दोनों जगह हैं
नाच दोनों जगह चलता है
मेक अप और मास्क के पीछे
खरीददारों के लिए
अफसर में कोई अल्हड लावण्य नहीं
उसके पास कोई बिस्तर भी नहीं
बस कुर्सी और कलम का कमाल है
कोठा कोठी से बड़ा है
वहां पेशा ईमानदारी से चलता है
पर कोठी का दाम बढ़ता जा रहा है
और कोठे को पुलिस वाले बंद कराते जा रहे हैं
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