Sunday, March 20, 2022

Dur ke dhol

 दूर के ढोल


मैं पार्क में घूमने गया

दूर की घास हरी-भरी दिखाई दी

वहां पहुंचा तो वैसी नहीं थी

मन बैठने को नहीं हुआ

आगे की घास हरी-भरी लगी

यह सिलसिला चलता रहा

और वहीं बैठ गया अंतत:

हार थक कर मैं

जहां उस वक़्त खड़ा था,

खत्‍म हुआ इस तरह

मेरा वर्तुल भ्रमण :

मैं केंद्र से दूर

परिधि पर भटकता रहा

कस्‍तूरी की खोज में

हिरन बना हुआ,

मरीचिकाएं

सिर्फ रेगिस्‍तान में ही नहीं होती

पूरी जिंदगी मे होती है

दूसरे की थाली में पड़ा खाना

ज्‍यादा और जायकेदार लगता है

पराये का दुख छोटा लगता है

पड़ोसी की बीबी सुंदर लगती है

वर्तमान से हमें घबराहट होती है

पिछली कक्षा आसान लगती है

अगली कक्षा का रोमांच होता है

अपनी आज की परीक्षा ही

हमें मुश्किल लगती है

जो नहीं है , रखता हे वो

उलझाये और बहलाये

हमारे मन को

ख्‍वाब और डर में

जिंदगी बीतती जाती है

वक्‍त गुजरता जाता है

हम यूँ ही धीरे-धीरे

चुकते चले जाते हैं 

बाल भी सफेद होते जाते हैं 

थोड़े धूप में और थोड़े छांव में ।