Thursday, July 21, 2011

अंतिम संस्‍कार

मेरी लाश अभी आयी है
शमशान घाट पर
एक लाश और आ रही है
दूजी अधजली है
तीसरी की राख ठंडी पड़ चुकी है
तैयारियां चल रही हैं
उस इंसानी जिस्‍म को फूँकने की-
जिसे हम अब तक रिश्‍तों से बुलाते थे
सभी इंतजार में हैं
अर्थी को चिता पर रखते
लकडियों से उस ढांचे को ढांकते
जिसमें कोई प्राण नहीं है अब
बदबू से बचाने को
सामग्री~घी~चंदन डालते
आग लगा देंगे हड्डियों के शरीर को
सर्व-धर्म समभाव के शमशान घाट पर
जहॉं एक ओंकार , हे राम और ओम~शांति लिखा है
क्‍या सत्‍य है ?
शायद कुछ भी नहीं
बस यूँ ही लोग खुद को भुलाने के लिए
मंत्र दोहराते हैं जनाजे की भीड में
नारे-स्‍लोगन की तरह-
'' राम नाम सत्‍य है ''
सत्‍य ?
वो था जो नाम से जाना जाता था
या यह है जिसे हम लाश कहते हैं उसकी
राम कहां से आ गया बीच में-
न कभी देखा, न सुना- उसे
और सब शव-यात्राओं में उसी को सत्‍य कहते हैं
मौत एक उत्‍सव है
अवसर- जहॉं हो जाती है मुलाकात
सब रिश्‍तेदारों से
जिन्‍हें वैसे तो फुरसत नहीं मिलती।
कोई पूछता है – क्‍या हुआ, कब हुआ
बताते-बताते थक चुका हूँ
मन होता है – कैसेट में रिकार्ड कर
उसको चला दिया करूँ
या उनसे सवाल करूँ-
'' तुम कर क्‍या सकते थे
या तुम कर क्‍या सकते हो। '"
औपचारिकताओं के इस काल में
मौत भी एक सूचना रह गई है
और वो अगर दूर कहीं हो
तो अखबार और टी.वी. में
गिनती~संख्‍या ही बस।
कितने मरे , कितने दबे.......
लो एक लाश और आ गई ।
गुजरती हुई लाश को देखकर
लोग किसको मत्‍था टेकते हैं -
परमात्‍मा को,
उस आत्‍मा को,
खुद की मौत के भविष्‍य को
या डर लगता है उन्‍हें
अपनी लाश का ।
लाशों की भी स्‍टेजज हैं :
नहा~धोकर तैयार होने वाली लाश
अर्थी से उतरती हुई लाश
चिता पर लेटी हुई लाश
लकडियों से दबी लाश
अधजली लाश
अंगारे छिटकाती लाश
राख में बदली हुई लाश
हडिडयां चुनी जा रही लाश।
खून, दूध, आंसू और
लाश की राख :
सब एक-से होते हैं -
हिन्‍दू के और मुसलमान के
आदमी के और औरत के
शहरी और गंवार वाले के-
बस उनकी मात्रा ज्‍यादा या कम होती है
उम्र, शरीर के अनुसार
किसकी शव-यात्रा में
कितनी जमात और बारात
इसका भी अभिमान
कौन किस अस्‍पताल में मरा
और कितना खर्च करने के बाद
(या आमदनी उन डाक्‍टरों को कराने के बाद )
कितनी बड़ी बीमारी से हुई मौत
सब खड़े हैं
लाश के इर्द-गिर्द
सुरक्षा के लिए
या साक्षी : निश्चित करते गवाह बने हुए
कि वह चला गया, जल गया
पूरी व्‍यवस्‍था है -
राख में कोई प्राण न रह जाए
भूत को फिर से उठाने के लिए ।
सेवा करते बच्‍चे और बूढ़े
लक‍ड़ी लगाते लाश में
कंधा देते अर्थी को
दक्षिणा दे रहा है सिरघुटा बेटा
चुटैया वाले पंडित को
जिसने सौंप दिया उसकी मॉं के
निर्जीव शरीर को आग में
: आखिर किसका पुण्‍य ?
और डोम के बारे मे-
उनका पेशा है
लाशें जलाना
जैसे कसाई का जानवर काटना
जैसे वेश्‍या का शरीर बेचना
संवेदना सभी की होती है
पेट की भूख ही सच होती है
सिर्फ मौत ही पक्‍का सच होती है ।

प्रत्‍यक्ष को भी प्रमाण चाहिए

बन गया है बंदा
कागजों का पुलिंदा -
सिमट गई है
उसकी लाइफ
इक फाइल मे -
जिसमें लगे है
सर्टीफिकेट
बर्थ- जाति- करैक्‍टर-पढ़ाई के ,
पहचान है उसकी
आई - कार्ड, पासबुक और पासपोर्ट
जिन्‍हें कराना पड़ता है सत्‍यापित
सरकारी अफसरों से
जिंदा होने के सबूत के तौर पर
खुद की गवाही देने के लिए ,
जरूरी है
डैथ का सर्टीफिकेट भी
फाइल की क्‍लोजिंग के लिए
पर शुक्र है खुदा का
उसके लिए
खुद नहीं करनी पडती
मशक्‍कत
इंसान को ।

Monday, July 4, 2011

पसीने की कमाई

गर्मी के मौसम में
भून रही है वो
भुट्टे आंच पर
आंचल में सिमटे
अपने शिशु को
दूध पिलाते हुए,
करनी पड़ती है उसे
बहुत मशक्‍कत
क्‍योंकि
अब हो गए हें कम
देशी भुट्टे खरीदने वाले भी
पैकेट वाले रेडीमेड पॉप-कार्न
और अमरीकी स्‍वीट-कार्न के
बाजार मे ,
खुद भुन रही है वो
पेट की खातिर
जेठ की तपती दोपहर में ।

Friday, July 1, 2011

सीखना - सिखाना

नर्सरी स्‍कूल की
नई-नवेली मैडम
लिखवा रही थी
नन्‍हें बच्‍चों से
कर्सिव राइटिंग में
अंग्रेजी के अल्‍फाबेट्स
डांटती हुई झुंझलाकर
’ क्‍यूं नहीं घुमा पाते
लाइन डस तरह
जैसे मैं बताती हूँ ’
मन हुआ कहूँ
उस शिक्षिका को :
जरा तुम भी
लिखकर तो देखो
उर्दू के हिज्‍जे :
किसी के लिए
बाएं हाथ का खेल
दूजे को
दाएं हाथ का खेल भी
नहीं लगता है ।

गुजर चुके हम
जिन कक्षाओं और परीक्षाओं से
वो हमें आसान लगते है
दूसरों को समझाते हुए ,
पर बहुत मुश्किल होता है
कुछ भी नया सीखना
जो हमें नहीं आता
चाहे रोटी पकाना
चाहे कपड़े धोना
चाहे साइकिल चलाना
या फिर
बच्‍चों जैसा
सच्‍चा बनना ।