पागल की जरूरत
पागल की जरूरत
पागल मनुष्य कौन है
सोचता हूँ कभी
विकृत होता जन्म से मनुष्य
या जीवन बना देता उसे पागल
कभी समझते हैं हम जिसे दुनियादारी
वो भी तो सनकपन
पागल की नज़रों में
कभी धन,कभी पद
कभी मोह,कभी मद
कर देते पागल
फिर भी क्यूं कहा जाता है
पागल उन्हीं को
जो होते नहीं, शायद दिखते हैं वैसे।
आखिर पागलपन है क्या
असंतुलन और विक्षिप्तता के लक्षण
चाहे फिर कारण
कितना ही समझ भरा क्यूं न हो,
कोई जन्म से पागल भी होता होगा
कह नहीं सकता
बस इतना जानता हूँ
भटक जाता मानव जब
समाज की अलबेली राहों में
नहीं ढाल पाता खुद को
समाज की
बध्य और परिभाषित शैली में
तो कहलाता वो
सनकी,असभ्य या पागल
या वो फिर मानव ही नहीं रहा
सभ्य-शिष्ट लोगों की नज़रों में,
पर क्या ऐसा सोचना उचित है ?
यदि यथार्थ में कुछ है
पागलपन जैसा
तो यह दुनिया तुम समझदारों की
जहां तुम्हारे बीच
एक पागल के लिए भी
जगह नहीं
अरे तुम तो बहुमत में हो
शासन करो अपनो समझ से
खात्मा कर डालो
उन गिने-चुने पागलों का
जो नहीं चलते तुम्हारे साथ
पर तुम तो डरते हो
कुछ विचारशील व्यक्तियों के कृत्यों से
जो लीक पर नहीं चलते
कुछ अलग सोचते हैं
कुछ अलग करते हैं
घबराहट होतो है
उनके परंपराओं को तोड़ने से
फिर यह तुम्हारा भ्रम है कि
तुम समझदार हो
तुम तो छल रहे हो
स्वयं को और समाज को
परिवर्तन ला सकता था जो
घोषित कर दिया पागल उसको
स्वार्थ है तुम्हारा
उस निर्दोष को अपराधी बनाने में
पर अब उसे डर ही क्या
हो चुका बदनाम
उठा झूठे नकाब
तुम्हारे उजले चेहरों से
कर डालेगा नाम
तब कहना बंधुवर
कितनी जरूरत है पागल की
इस समाज में
समाज के लिये।