Monday, July 3, 2023

Paagl ki Jarurat

 पागल की जरूरत


पागल की जरूरत


पागल मनुष्य कौन है

सोचता हूँ कभी

विकृत होता जन्म से मनुष्य

या जीवन बना देता उसे पागल

कभी समझते हैं हम जिसे दुनियादारी

वो भी तो सनकपन

पागल की नज़रों में

कभी धन,कभी पद

कभी मोह,कभी मद

कर देते पागल

फिर भी क्यूं कहा जाता है

पागल उन्हीं को

जो होते नहीं, शायद दिखते हैं वैसे।

आखिर पागलपन है क्या

असंतुलन और विक्षिप्तता के लक्षण

चाहे फिर कारण

कितना ही समझ भरा क्यूं न हो,

कोई जन्म से पागल भी होता होगा

कह नहीं सकता

बस इतना जानता हूँ

भटक जाता मानव जब

समाज की अलबेली राहों में

नहीं ढाल पाता खुद को 

समाज की 

बध्य और परिभाषित शैली में

तो कहलाता वो

सनकी,असभ्य या पागल 

या वो फिर मानव ही नहीं रहा

सभ्य-शिष्ट लोगों की नज़रों में,

पर क्या ऐसा सोचना उचित है ?

यदि यथार्थ में कुछ है

पागलपन जैसा

तो यह दुनिया तुम समझदारों की

जहां तुम्हारे बीच 

एक पागल के लिए भी

जगह नहीं

अरे तुम तो बहुमत में हो

शासन करो अपनो समझ से

खात्मा कर डालो

उन गिने-चुने पागलों का 

जो नहीं चलते तुम्हारे साथ

पर तुम तो डरते हो

कुछ विचारशील व्यक्तियों के कृत्यों से

जो लीक पर नहीं चलते

कुछ अलग सोचते हैं

कुछ अलग करते हैं

घबराहट होतो है 

उनके परंपराओं को तोड़ने से

फिर यह तुम्हारा भ्रम है कि

तुम समझदार हो

तुम तो छल रहे हो

स्वयं को और समाज को

परिवर्तन ला सकता था जो

घोषित कर दिया पागल उसको

स्वार्थ है तुम्हारा

उस निर्दोष को अपराधी बनाने में

पर अब उसे डर ही क्या

हो चुका बदनाम

उठा झूठे नकाब 

तुम्हारे उजले चेहरों से

कर डालेगा नाम

तब कहना बंधुवर

कितनी जरूरत है पागल की

इस समाज में

समाज के लिये।

Sunday, March 20, 2022

Dur ke dhol

 दूर के ढोल


मैं पार्क में घूमने गया

दूर की घास हरी-भरी दिखाई दी

वहां पहुंचा तो वैसी नहीं थी

मन बैठने को नहीं हुआ

आगे की घास हरी-भरी लगी

यह सिलसिला चलता रहा

और वहीं बैठ गया अंतत:

हार थक कर मैं

जहां उस वक़्त खड़ा था,

खत्‍म हुआ इस तरह

मेरा वर्तुल भ्रमण :

मैं केंद्र से दूर

परिधि पर भटकता रहा

कस्‍तूरी की खोज में

हिरन बना हुआ,

मरीचिकाएं

सिर्फ रेगिस्‍तान में ही नहीं होती

पूरी जिंदगी मे होती है

दूसरे की थाली में पड़ा खाना

ज्‍यादा और जायकेदार लगता है

पराये का दुख छोटा लगता है

पड़ोसी की बीबी सुंदर लगती है

वर्तमान से हमें घबराहट होती है

पिछली कक्षा आसान लगती है

अगली कक्षा का रोमांच होता है

अपनी आज की परीक्षा ही

हमें मुश्किल लगती है

जो नहीं है , रखता हे वो

उलझाये और बहलाये

हमारे मन को

ख्‍वाब और डर में

जिंदगी बीतती जाती है

वक्‍त गुजरता जाता है

हम यूँ ही धीरे-धीरे

चुकते चले जाते हैं 

बाल भी सफेद होते जाते हैं 

थोड़े धूप में और थोड़े छांव में ।

Sunday, February 20, 2022

Meri nanhi-si khwahish

 मेरी नन्हीं-सी ख़्वाहिश 

मैं रेलवे स्टेशन पहूँचूं तो गाड़ी रुकी मिले। हम जिस गाड़ी का इंतजार कर रहे हों, उसका एनाउंसमेंट  बार-बार हो | वह आकर तब तक रुकी रहे ,जब तक मैं और मेरा सामान पूरी तरह से ठीक-ठाक चढ़ न जाए और मुझे अपनी पसंद की सीट/बर्थ मिल जाए (लोअर/अंदर)। गाड़ी जल्‍दी उस स्‍टेशन के मेन प्‍लेटफार्म पर पहुंचे जहॉं मुझे उतरना है और वहां तब तक खड़ी रहे ( सीढि़यों के सामने ) जब तक मैं पूरी तरह से ठीक-ठाक उतर न जाऊँ। गाड़ी समय से ही पहुँचे और तभी मेरी ऑंख खुले ताकि रात की नींद में खलल न पड़े। कोई स्‍टेशन पर मुझे लेने के लिए गुलदस्‍ता हाथ में लिए खड़ा हो । बाकी मुझे कोई मतलब नहीं किसी से  मैं सेल्फिश नहीं हूँ | आखिर मुसाफिर हूँ , मुझे रहना थोड़े ही है गाड़ी में। 

Thursday, February 17, 2022

Gusse ki dictionary

सब कहते हैं 

गुस्‍सा नहीं आना चाहिये 

इससे सेहत खराब होती है 

पर क्‍या करें 

गुस्सा आ ही जाता हैं 

थोड़ी देर बाद 

शांत भी हो जाता है,

दूध के ऊफान की तरह 

किसी को बहुत जल्‍दी आ जाता है 

किसी को काफी देर बाद आता है 

जैसे अलग-अलग होता है 

हर लिक्विड का BP (बाइलिंग प्‍वांइट

और ..... शायद ब्लड प्रेशर भी) ,

गुस्‍से की डिक्‍शनरी

अक्‍सर बहुत छोटी होती है 

बाद में समझाना पड़ता हैं 

हमारा यह मतलब नहीं था, 

दूसरे को या सिचुएशन को ही 

हम जिम्‍मेदार ठहराते हैं 

इसलिए गुस्‍से से 

अक्सर दूर नहीं हो पाते हैं,

मुझे लगता है 

इंसान को गुस्‍सा 

आना भी जरूर चाहिए : 

जब जरूरी हो 

जहां जरूरी हो 

जिस पर जरूरी हो :

जुल्‍म और जबरदस्‍ती के खिलाफ

शोषण और विषमता के खिलाफ 

झूूठ-फरेब और धोखे के खिलाफ, 

पर पता नहीं चलता उस वक्‍त हमें

इतना गुस्‍सा करना जरूरी था क्या ? 

कभी छोटी-छोटी बातों पर 

ज्यादा आ जाता है तो

कभी बड़ी बातों पर भी

उतना नहीं आता  जितना आना चाहिये या

हम गुस्‍सा पी जाते हैं अपने अंदर ही

बाहर सभ्‍य दिखने-दिखाने के लिए 

पर दबाने से 

गुस्‍सा खत्‍म नहीं हो जाता 

अलबत्‍ता सेहत अंदर से 

खराब जरूर हो जाती है

चूंकि ज़्यादातर गुस्‍सा 

लिख और बोलकर ही 

बाहर निकलता है

इसलिए इसे जाहिर करने की 

हमें डिक्‍शनरी बढ़ानी चाहिये !

Sunday, October 24, 2021

Kadwa chauth

 करवा चौथ के चार जवाब


जब बेटी दो साल की थी तो बाप चल बसा। कुछ समय बाद मां ने दूसरी शादी कर ली जिससे उसे एक बेटा पैदा हुआ। बेटी मां के नये पति को अंकल कहकर बुलाती है जो उससे सौतेला बर्ताव करता है। इसकी वजह से घर में अक्सर तनाव रहता है। आज के व्रत पर सबने बातचीत की।


बेटा : यह व्रत किसके लिए रखती हो ?

तुम्हारे पापा के लिये।

बेटी : यह व्रत किसके लिये रख रही हो ?

तुम्हारे पापा के लिये।

पति : यह व्रत किसके लिये रखा है ? 

तुम्हारे लिये।


उस मां का एक दोस्त है जिससे उसने एक बार (शायद यूं ही..) कहा था -  " यार, तुम कहाँ थे उस वक़्त....तुमने बहुत देर कर दी। पहले मिले होते तो मैं तुम्हें ज़िन्दगी का हमसफर बना लेती। " जब उस दोस्त ने आज पूछा :  यह व्रत किसके लिये रख रही हो ? तो वह बोली : " तुम्हारे लिये। "


परम्परा और दुनियादारी को निभाने के चक्कर में सबको (भगवान समेत) खुश रखने की कोशिश  करती है सिवाय अपने।

Wednesday, October 13, 2021

कंजक पूजा

 खुशामद और मिन्नत हो रही थी- 

 ‘ हमारे घर भी आ जाना बिटिया 

 सुबह थोड़ा सा वक्त निकालकर '

आ गई वो नौ सहेलियों को लेकर 

कई घरों से भोग लगाकर आईं

झुग्गीबस्ती में रहने वाली 

उन बच्चियों ने 

सिर्फ एक-दो पूरियां ही खाई 

बाकी पैक कर लीं घर के लिए 

शायद : शाम और कल के लिए 

विदा हो गईं कंजकें 

थाली और पैसे लेकर, 

देवियों की पूजा भी हो गई 

नौरातों के व्रत भी पूरे हो गए 

कल उनमें से कोई बच्ची  

सड़क पर हमें मिल जाये और 

हाथ जोड़कर रामराम करे तो 

शायद ही हममें से कोई

उसे जवाब दे !

Tuesday, February 16, 2021

मास्टर गोकुलचन्द के नाम

 याद आते हैं  मुझे

बचपन के वो दिन 

जब तख्‍ती-बुदक्का लेकर

कंधे पर भारी बस्‍ता ढोकर

मैं जाया करता था 

मंदिर वाले स्‍कूल में 

जिसे उस वक्‍त

विद्या-मंदिर नहीं कहा जाता था 

और न ही उसमें पढ़ाने वाले 

बूढ़े मास्‍टर गोकुलचन्‍द को 

सर या टीचर,

उनकी आंखें पत्‍थर की थीं 

हाथ में छड़ी रहती थी 

धोती पहनते थे गंदी-सी 

आवाज कड़क थी 

गणित उनके लिए खेल था 

बच्‍चे उनका जीवन थे 

और वह चबूतरा ही 

उनकी कुर्सी थी 

जिस पर बैठ 

वह पहाड़े याद कराते थे,

बच्‍चों से घिरे 

उन्‍हें डॉंटते-पीटते 

मुर्गा बनाते, गरियाते-झल्‍लाते 

फिर भी बार-बार समझाते ,

सॉंस चलती थी तेज 

पर लगे रहते पढ़ाने में 

दोपहर तक बिन खाये 

घंटी भी खुद ही बजाते थे 

सभी कक्षाओं को 

अकेले पढ़ाते थे 

स्‍कूल जब बंद हो जाता 

तो कोई खाना दे जाता 

खाकर और कुँए से पानी पीकर 

नीम के पेड़ तले

सुस्‍ताने के लिए 

जमीन पर ही 

पसर जाते थे, 

शाम को टहल आते थे 

बाजार की ओर 

किसी बच्‍चे का दुकानदार बाप 

मास्‍टर जी को बुलाकर 

चाय-हुक्‍का पिला देता 

घूम-फिर वे फिर आ जाते 

मंदिर में 

जहॉं थे वे खुद ही पूज्‍य और पुजारी

सिखाते बच्चों को सबक 

जिंदगी का 

वे मेरे प्रथम टीचर थे :

मास्‍टर गोकुलचन्‍द: 

सोई गॉंव के जाग्रत पुरूष।