Thursday, February 21, 2013

संघर्ष के साथी

आज सुबह जब मैं दफ्तर पहुंचा
वर्कशाप के गेट पर भीड़ जुटी थी
सरकारी वर्करों की
जिनमें अक्‍सर पुरूष ही दिख रहे थे
नारे लग रहे थे जोरशोर से
हकों की मांग करते हुए
सिस्टम को गरियाते हुए -
पर दिहाड़ी पर घास काटने वाली औरतें
उसी गेट से अंदर काम पर जा रहीं थीं
उन्हें किसी ने नहीं रोका या समझाया
वो हड़ताल पर जाने का नहीं सोच सकती
क्‍यूंकि वे तो ठहरीं असंगठित और मजबूर
जो महंगाई की मार झेलते हैं
जिनके पेट कुछ भरे हों
वे ही और मांगते हैं ,
कोई आमरण अनशन पर बैठता है
खुद को मनवाने का इंतजार करते हुये
पर जब कोई आता नहीं बात करने
तो खुद ही तोड़ देता हे व्रत
फेससेविंग के लिये
छोटा समझौता करते हुए
मन को कुछ समझाते हुए  ,
कोई धरने पर बैठता है , कोई चीखता है
कहीं फेसबुकिया आंदोलन चलता है
लाउडस्‍पीकर पर चिल्‍लाने से  
दुकाने बंद करने  से -  गाडि़यां जलाने से
घुड़की और भौं- भौं से
कोई बात नहीं बनेगी
सरकारें बहुत बेशरम हैं
अब तो लड़ना होगा - अड़ना होगा
खिलाफत के जो हथियार भोथरे पड़ चुके
उनकी धार को पैना करना होगा 
 पर उनको साथ लेकर नहीं
जिनके पास खोने के लिये अभी बहुत कुछ है  :
प्रमोशन - सेलरी - पोस्टिंग और ट्रांसफर !


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