आज उसकी याद आ गयी
जब मैं पैदल ही चला
दफ्तर के लंबे सफर पर
मानसून की पहली बूंदाबांदी में।
वो बुडढा निकलता था
बारिश में घूमने
अलफ नंगा
पेड़ की टहनी को
बेंत बनाकर
मानो करता हो
चैलेंज - कुदरत को
उसे काई डर नहीं था ।
उसके पास कुछ नहीं था
न तन पर कपड़े
न सामान का झोला
न खाने की कटोरी,
किसी से वह
न कुछ बोलता
न कुछ मॉंगता
न कुछ इकठ्ठा करता
कुछ देने पर भी
बस अपनी जरूरत जितना रखता
और बाकी वापिस कर देता
वह सारे मौसम कुछ नहीं पहनता था।
कभी उदास या रोते हुए
मैंने उसे नहीं देखा
हॉं ! वह कभी-कभार हॅसता जरूर था
शायद दुनिया के पागलपन पर
जो उसको पागल समझती थी।
था उसके चेहरे पर
गजब का नूर
जो याद दिलाता था मुझे
ईसा के क्रूस की ,
सबके दुखों और पापों का बोझ
सहते हुए सहर्ष
वह संत था
मस्तमौला फकीर था ।
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सुन्दर लेखन।
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