हल्दीराम की दुकान पर
रघ्घू जलेबी छानता है
जिसकी खुद की
मिठाई की दुकान थी कभी
उस कस्बे में
जहां का मैं रहने वाला हूं
उसकी छोटी-सी दुकान के बाहर
खडा छोटा बच्चा ही
चिल्ला-चिल्ला कर बुलाता रहता था
सड़क पर गुजरते हुए लोगों को
’ बाबू जी जलेबी खाओ अंदर आओ ‘
वही उसका विज्ञापन था ,
ज्यादा पैसा कमाने
वह इस शहर चला आ आया
जहां उसने पहले खोमचा लगाया
फिर खाक छानी
कई जगह और कई तरह की
अंत में अपने हुनर को
भुनाने की कोशिश में
मालिक से कारीगर बन गया ।
मैं पटरी से खरीदता हूं
सब्जी , किताबें और शर्ट
छोटा मुझे सुंदर और अपना लगता है
बिग बाजार मे जाने से डर लगता है
वो कहते है
वहां खूब वैराइटी मिलंगीं
बेस्ट प्राइस पर मिलेगी
कम्प्यूटर की रसीद भी मिलेगी
पर जब भी मैं गया वहां
जो जरूरी नहीं था
वो भी खरीद लाया
वहां मोलभाव नहीं कर पाता
ट्राली में समान रखते हुए
कुछ अजीब सा लगता है,
हां ! मैं कस्बे का रहने वाला हूं
मेरी सोच कस्बाई हूं
पर मैं कसाई नहीं हूं
जो पैकेट की सब्जियां
मॉल से खरीदकर
पड़ोस गांव के गाय-रूपी
सब्जी विक्रेताओं का
पेट काट दूं ।
i like it....rightly said!
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