Monday, April 6, 2015

जब पिता जी चाय पीते थे 
सुड़क-सुड़क की आवाजें करते हुए 
तो मैं झुझालाकर 
दूसरे कमरे में चला जाता था, 
साथ में बैठे छोटे भाई को 
चपचप करते हुए
रोटी खाने पर
कभीकभार चपत भी लगा देता था -
पर अब
ऑफिस में बॉस
वैसे ही तरीके से चाय पीते हैं
तो चुपचाप बैठा रहता हूं ,
हॉस्टल की मैस में
नानवेज की टेबुल पर
साथ बैठकर खाना खा लेता हूं
दूसरे लोग भी देखते रहते हैं
बिना कुछ कहे
जब मेरी दाढी़ में दाल गिर जाती है,
दादा जी बीमारी में ज्याजदा खांसते थे
तो उन्हें पापा भी कुछ सुना देते थे
पर ट्रेन में चल रहे खरार्टो से
कितनी भी खलल पड़ें नींद में
सहयात्री को मैं कुछ नहीं कह पाता
पर घर जब जाता हूं अब भी तो
पिता जी के साथ
चाय ठीक से नहीं पी पाता हूं
अपनों को सहना मुश्किल होता हैं
उनको हम अक्सर टोक देते हैं
दूजों से कहना और मुश्किल होता हैं
उन्हें कभी नहीं रोक पाते हैं
कुत्तोंं के भोंकने या टैफिक के शोर से
रात को नींद टूट जाये तो
तो हम कुछ नहीं कर सकते
न किसी को नखरे दिखा सकते
न किसी से शिकायत कर सकते
बस अपनों पर ही हमारा जोर चलता है !

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