याद आते हैं मुझे
बचपन के वो दिन
जब तख्ती-बुदक्का लेकर
कंधे पर भारी बस्ता ढोकर
मैं जाया करता था
मंदिर वाले स्कूल में
जिसे उस वक्त
विद्या-मंदिर नहीं कहा जाता था
और न ही उसमें पढ़ाने वाले
बूढ़े मास्टर गोकुलचन्द को
सर या टीचर,
उनकी आंखें पत्थर की थीं
हाथ में छड़ी रहती थी
धोती पहनते थे गंदी-सी
आवाज कड़क थी
गणित उनके लिए खेल था
बच्चे उनका जीवन थे
और वह चबूतरा ही
उनकी कुर्सी थी
जिस पर बैठ
वह पहाड़े याद कराते थे,
बच्चों से घिरे
उन्हें डॉंटते-पीटते
मुर्गा बनाते, गरियाते-झल्लाते
फिर भी बार-बार समझाते ,
सॉंस चलती थी तेज
पर लगे रहते पढ़ाने में
दोपहर तक बिन खाये
घंटी भी खुद ही बजाते थे
सभी कक्षाओं को
अकेले पढ़ाते थे
स्कूल जब बंद हो जाता
तो कोई खाना दे जाता
खाकर और कुँए से पानी पीकर
नीम के पेड़ तले
सुस्ताने के लिए
जमीन पर ही
पसर जाते थे,
शाम को टहल आते थे
बाजार की ओर
किसी बच्चे का दुकानदार बाप
मास्टर जी को बुलाकर
चाय-हुक्का पिला देता
घूम-फिर वे फिर आ जाते
मंदिर में
जहॉं थे वे खुद ही पूज्य और पुजारी
सिखाते बच्चों को सबक
जिंदगी का
वे मेरे प्रथम टीचर थे :
मास्टर गोकुलचन्द:
सोई गॉंव के जाग्रत पुरूष।