Monday, May 24, 2010

मैं युधिष्ठिर नहीं हूँ

सबको मरना है किसी रोज
तो क्‍या जीना ही बंद कर दें
एक्‍सीडेंट देखकर सड़कों पर
लोग गाड़ी चलाना ही छोड़ दें
तलाक के मुकदमों से डर कर
शादी का खयाल ही मन से हटा दें
शायद यही बेहतर है लगना
जिजीविषा के लिए-
मेरी मौत नहीं होगी
मेरी टांग नहीं टूटेगी
मेरी गांठ नहीं छूटेगी-
पानी पीने दो
तुम : यक्ष !
या न पीने दो ,
मै तो तुम्‍है यही जवाब दूँगा
सपनों को टूटते हुए देखकर भी
नित नऐ सपने देखना
दुनिया का सबसे बड़ा आश्‍चर्य है
मौत से भी बड़ा।

रौशनी के खंभे

सर पर उठाये,
रौशनी के खम्‍भे
चलती धीरे-धीरे
बारात में
क्‍या सोच रही है वो ?
साथ में चल रही हैं
मोटी-भारी औरतें
लादे हुए जेवर
पुते हुए चेहरे
नशे में चूर
नखरे-सँवारती
मस्‍ती से मदमाती चाल में।
बीच-बीच में
जब कारवॉं रूक जाता है
नाचने लगते हैं बाराती
और वो '' बेचारी '' खड़ी हो जाती है
खंभे को सिर पर सँभालती
ताकती रहती है इंतजार
कब नाच थमेगा
और ''वो'' बोझ उठाए
खड़े रहने की पीड़ा से मुक्‍त होगी।
बारात पहुँच गई है मंडप
रौशनी फैली है चारों ओर
अब उसकी जरूरत नहीं
द्वार से ही उसे और
उसकी सखियों को
वापिस मोड़ दिया जाता है,
जो अभी भी उठाये हैं
सर पर ऊँचे
रौशनी के खंभे ।
पर अब उनकी चाल है तेज जरा
शायद चालीस रुपये पाकर
या जल्‍दी घर पहुँचने को :
खाना बनाना है
बच्‍चों के लिए
जो भूखे ही सोने की
कोशिश कर रहे होंगे
उनके पेट में बारात के
बाजे बज रहें होंगे ।
वह भी अभी भूखी ही है
और बाराती ...... प्‍लेटें चाट रहे हैं।
कल एक और शादी है
उसे भी बुलावा मिला है
रौशनी के ठेकेदार से
आजकल लग्‍न का मौसम है।

Thursday, May 20, 2010

शुक्रिया

बस में आज
मैंने एक सुंदर लड़की को देखा
मुझे ईर्ष्‍या हुई उसे देख
उसके उतरने का स्टैंड आया
वह उठी :
उसके एक पैर था
हाथ में थी बैसाखी
मैंने परमपिता का शुक्रिया किया
मेरे दो पैर हैं - सही सलामत।

मैं दुकान पर गया
मिठाई खरीदने
ब्रिकी करने वाले लड़के ने
मुझसे की मीठी बातें
बोला –
'' मुझे बात करना अच्छा लगता है
मैं देख नहीं सकता न, इसलिए।''
मैंने परमपिता का शुक्रिया किया
मेरी दो ऑंखे हैं - सही सलामत।

मैं बाजार में चलता रहा
एक बच्चा मिला
जो था गुमसुम
हमउम्र बच्‍चों की भीड़ के बीच
जो खेल रहे थे, शोर मचाते
'' क्यूँ नहीं खेलते तुम उनके साथ ''
वह देखता रहा, कुछ न बोला
मुझे पता चला
वह सुन नहीं सकता
मैंने परमपिता का शुक्रिया किया
मेरे दो कान है - सही सलामत ।

हे ईश्वर !
सब कुछ बिल्कुल सही है :
दोनों पैर, दोनों ऑंखें, दोनों कान
और वह सब
जो मुझें याद नहीं रहता
तुम्हारा दिया हुआ
शिकायत क्या करू
और तुझसे क्या मांगू
तूने दिया है मुझे
हैसियत से ज्यादा
धन्यवाद तुझे कोटि-कोटि।

Tuesday, May 18, 2010

इवेन्ट-मैनेजमेंट

आज फिर गया मैं
एक आयोजित कार्यक्रम में
उम्‍मीद से कि
कुछ हासिल कर लौटूँगा।
वही सब कुछ हुआ:
दीप-प्रज्‍ज्‍वलन
मुख्‍य अतिथि का उदबोधन
दो शब्‍दों की लंबी श्रृंखला
परदा, बैनर, फर्श, अर्श
पानी की बोतलें
माइक, पोडियम, लाइट
श्रोता-दर्शक, मंच, वक्‍ता
और बीच-बीच में
स्‍वत: ध्‍वनित तालियॉं।
ईवेंट-प्रबंधन का कितना
सुगम और सहज
तरीका हो गया है, प्रोफेशनल
सिंगल विण्‍डो पर सब कुछ
मिल जाता है-
फूड, टेंट, साउंड, लाइट, हॉल
और कार्यक्रम के
स्‍पॉन्‍सर, वक्‍ता-परफॉर्मर भी।
मंच के लोगों
और सामने बैठे-देखते लोगों में
कितना भेद हो जाता है
जैसे मंच जवाब हो
और सामने केवल
सवाल करने वाले लोग।
सभी परेशान, बोर, बेचैन
किंतु सुनते-झेलते-झल्‍लाते
इंतजार करते कब
कार्यक्रम समाप्‍त हो
और भोजन शुरू हो।
अंत में ..........
सभी मंच के लोगों से अपनी
पहचान का
सबूत देने की कोशिश में
जरा उनसे मैं भी मिल लूँ
जो यह भी नहीं सुनते
कि आप कैसे हैं कहॉं ठहरे हैं
बस अपनी अकड़ में
अभी भी बखानते जा रहे हैं
अपना ही व्‍याख्‍यान, उपदेश
और कि-
'' हमने ऐसा किया
हम यह करेंगे
हम वह करेंगे ''
सब बदल जाएगा
पर हम नहीं बदलेंगे
क्‍योंकि हम, हम हैं
वी.आई.पी मंचों के अध्‍यक्ष
और सर्वज्ञ।
एक और अनुभव
अब नहीं जाऊँगा।
पर नहीं, अब जाऊँगा-
बस नाटक देखने
और इस कविता को
आगे बढ़ाने के लिए
मसाला इकट्ठा करने।
सब जानता हूँ या नहीं
पर जानना चाहता हूँ-
हिपोक्रेसी, डबल स्‍टैंडर्ड :
समाज की गति, स्थिति और दिशा
जो मुझे भी मालूम है
पर सुनूँ तो-
आयोजकों के तमाशों में
क्‍या हो रहा है आज
... चलो, चलें देखने स्‍वांग-
नचनिया, भटरिया और उपदेशक
इकट्ठे हैं
तालियॉं भी तो जरूरी हैं
उन्‍हें नचाने के लिए।

Friday, May 14, 2010

ड्रेस-चेंज

पहनते थे पहले
दुपट्टा और पगड़ी
सभी लोग :
चेहरे पर नकाब
सिर पर टोपी
हया का प्रतीक था
नंगे सिर घूमना
बुरा माना जाता था ।

अब जमाना बदल गया है
बहुत आगे बढ़ गया है
नंगा रहना ही
फैशन हो गया है !

लाया जा रहा है दुपट्टा
आँचल या सिर
ढकने की बजाय
मुँह छुपाने के काम
गरमी की धूप से ,
लोगों की नजरों से
और पगड़ी पहनते हैं सरदार
स्‍मार्ट दिखने के लिए
हैलमेट के तौर पर।

Thursday, May 13, 2010

बिड़ला-मंदिर

पहले लूटा लोगों को
चीजें मँहगी बेचकर
फिर बनवाए मंदिर
उसी डकैती के
इक छोटे से हिस्‍से से
जड़ते हुए अपने
नाम के पत्‍थर
द्वार पर
जिन्‍हें देखकर लगता है
मानो भगवान को
कैद कर लिया हो
और जमानत के लिए उसे
पत्‍थर पर खुदी राशि
जमा कराने का आदेश हो ।

लोग जो लुट कर
बन चुके थे गरीब
अपने मन का समझाने
या फिर पूर्वजन्‍मों का पाप काटने
अभी भी आते हैं मंदिर में
और उन दान-पत्‍थरों को पढ़कर
उन्‍हीं लुटेरों के पुण्‍य की
प्रशंसा करते हैं
थोड़ा पुण्‍य कमाने को
चंद सिक्‍के खुद भी
चढ़ा देते हैं
शीश नवाते
उस मूर्ति के सम्‍मुख
जिसे बनाया होगा शायद
किसी वैसे ही
गरीब व शोषित मजदूर ने।

Tuesday, May 11, 2010

नफरत का बार्डर

कौन ज्यादा देशभक्त है –
दिखाने की होड़ लगी है
नुमाइश है, जुनून है
नारे हैं, झण्डे हैं
शोर है, जोर है
मन में सबके चोर है।
खुदी के फेर में
खुदा के ही बंदों से
नफरत और दूरी:
यह कैसा देशप्रेम है ?
मोहांध और संकीर्णता का पर्याय।
बार्डर पर गूंजती आवाजें
बोर भी करती है
और शायद दिलों में डर भी।

इस पार भी
इंसानों की वैसी ही शक्लें
उस पार भी,
ये इंसानी हदें हैं
जो पक्षियों और पशुओं की
समझ में नहीं आती
चूंकि वे कम समझदार हैं
इंसान से
जिसने बनावटी रेखाओं से
बाँट दिया है
धरती को, कौम को।
आकाश पर अभी उसका जोर नहीं चला
इसीलिए चिड़िया – कौवे अभी
उड़ रहे हैं आजाद
गगन में
उनकी कोई जाति नहीं (चाहे प्रजाति हो)
उनका कोई मजहब नहीं (चाहे पंख अलग हो)
उनकी कोई भाषा नहीं (चाहे आवाजें अलग हो)
वे परिन्दे हैं - आजाद
हम दरिन्दे हैं - बरबाद।

वाघा की सांझ

बार्डर पर भीड़ थी :
परेड देखने का जोश
धक्का - मुक्की, सिक्यूरिटी
और क्रिकेट मैच जैसा शोर।
मैं गेट के बाहर से लौट आया
और पड़ोस के गाँव रोड़ा
( हिन्दुस्तान की तरफ )
चला गया।

सुनसान सड़क
आर्मी के अड्डे
शाम होने को थी
अजान और वंदे - मातरम की गूँज
लाउडस्पीकर पर बजते गीत
(देश – विभक्ति के)
इधर टूटी-फूटी रोड़ पर
छोटे बच्चे टहल रहे थे
उस भव्य – परेड से अनछुए
उनके मन में न जाने क्या होता होगा
: पाकिस्तान के खिलाफ
: पड़ोसियों के खिलाफ
: मुसलमानों के खिलाफ।
पर ये शहरी देशप्रेमी
अपने जुनून और नारों से
नफरत का बीज जरूर बो देते है,
झंडा फहराया - उतारा – चढाया जा सकता है
चुपचाप भी
पर नुमाईश .....

बिजली के तार
ट्रकों की कतार (प्याज और आलू)
मजदूर, फसल – खेत
और चिड़िया – कौओं के लिए
हदें बहुत बेमायने होती हैं
और शायद नहीं भी होती हैं।

गाँव के जानवर
चुपचाप बैठे है
वो हू-हू की आवाजें
कर रहे है
सियासत करते अमन की।
तकसीम और दरारें बनाकर।

Friday, May 7, 2010

हकीकत

सच क्‍या है
वो जो हम देखते हैं
वो जो हम सुनते हैं
वो जो हम महसूस करते हैं
शायद सब कुछ
शायद कुछ भी नहीं
क्‍यूँकि कुछ और भी
देख रही होती है आंखें
सुन रहे होते हैं कान
धुंधला होता है
मन का अक्‍स
अतीत की परत से,
निरपेक्ष होना वाकई
बहुत मुश्किल होता है ।

सच मीठा नहीं भी हो सकता
सच को बयान करने के लिए
रिहर्सल नहीं करनी पड़ती
सच सच ही होता है
नंगा , साफ और पारदर्शी
वो जो होता है - सो होता है।

जिंदगी का मकसद

मुझे जीना है
हाशिए के लोगों के लिए
गूंगों की आवाज बनकर
लंगडों के पैर बनकर
अंधें की लाठी बनकर
बीमारों को हौंसला देना है।

शामिल होना है
गरीब की खुशियों में
अछूत को अपनाना है
लिखनी है उनकी गाथा
जो जीवन के संघर्ष में
इतना उलझे रहे
कि पढ़ना लिखना उनके लिए
लक्‍जरी हो गया।

औरत को आदमी
तो नहीं बनाना मुझे
पर उसमें औरत होने का
स्‍वाभिमान पैदा करना है
और आदमियत के अहम से
उसे उबारना है।

मैंने ईश्‍वर को देखा नहीं
सरकार पर यकीन नहीं
अमीर की लूट रोकने का
मैं खुद ही होना चाहता हूँ
गरीबनवाज और दीनबंधु
लड़ते हुए जुल्‍म के खिलाफ ।
हाशिए के लोगों के लिए ही
मुझे मरना है।

Wednesday, May 5, 2010

मुझसे बुरा न कोय

देता है आम आदमी
बुराई का बदला बुराई से
मगर इंसान है वो जो दे
बुराई का बदला भलाई से ,
रखो ये नसीहत सदा याद
सोचो दूर तलक
बुराई से पहले
और बुराई के बाद ।

न हिंदू बुरा है
न मुसलमां बुरा है
बुराई जो करे
वो इंसान बुरा है
बुरा न होता है कोई
बुरी होती हैं बुराईयां
बुराईयों को मिटाती है
सदा अच्‍छाईयां।

भलाई करना है
सबसे नेक काम
बुराई मिटानी है
जिससे कोई है बदनाम ,
राह सीधी चलते रहो
नफरत घटाते चलो
सत्‍कर्म करते रहो
प्रेम बढ़ाते चलो ।
( D.L.Arora)

Tuesday, May 4, 2010

इंसटेंट मैसेजिंग

पढ़ा इक किताब में :
इजहार करते थे जज्‍बातों का
उस जमाने में प्रेमी
चॉंद को देखकर
अपनी-अपनी छत से
दूर रहते हुए भी
तरंगे भेजते रिश्‍तों में
जरिया बनाते हुए कुदरत को।

कबूतरों को संदेशा पहुंचाते हुए
तो मैंने नहीं देखा
पर अपनी इसी जिंदगी में
पोस्‍टमैन को जरूर मिला हूँ
खत और खबरें ले जाते हुए ,
एसटीडी की पल्‍स चौथाई होने का
इंतजार करते थे देर रात तक
आज की मोबाइल-क्रांति से
दस बरस पहले ही तो ।

सोच कर घबराता है मन
मेरे बूढ़ा होते-होते
कितनी बदल जाएगी दुनिया
और कितना विसंगत हो जाऊंगा मैं
वक्‍त की रफ़्तार में
कहते हुए खांस-हांफ कर
” हमारा भी जमाना था “

Monday, May 3, 2010

बदलता मौसम

सनराइज और सनसैट
देखने जाते हैं दूर
टूर पर लोग
उन्‍हें अपने घर की छत से
सूरज देखने की आदत
जो नहीं रही।

दैनिक भास्‍कर पढ़कर
सब कुछ जानने की कोशिश में
वो सुबह घर के बाहर
उदय हो रहे भास्‍कर को
देखने से वंचित रह जाते है ।

सर ऊपर उठा कर
चल नहीं सकते वो गगन मे
उड़ते परिंदों को निहारने के लिए
जिनकी आवाजें सुनाई नहीं देती
ट्रैफिक के शोर में ।

शीतल बयार की सिहरन को
थोड़ा रूककर महसूस करने में
उन्‍हें डर लगता है
कहीं पीछे न छूट जाएं
जमाने की दौड़ मे।

अब तो बस
ओंधी , बाढ़ या तूफान का
इंतजार रहता है
कुदरत का नजारा
लूटने के लिए।

ऐसा ही रहा
तरक्‍की का सफर
तो मारूति गाडी की तर्ज पर
शब्‍दकोष से उड़ जाएगा
आसमानी रंग का नाम भी
हवा की तरह।

Saturday, May 1, 2010

परछाईयां

आज कल इंसा नजर आता नहीं
चलती-फिरती आती नजर परछाईयां
हाल क्‍या कैसे कहें - कहा जाता नहीं
खुद ही खुद के लिए पैदा करीं परेशानियां
खाने - पीने और जीने में वो हमेशा मस्‍त हैं
चूर मय के नशे में इस कदर हर वक्‍त हैं
कल्‍पना के लोक में लेते सदा अंगड़ाईयां
चलती फिरती……………..
छोड़ राह नेकी की , बदी पर चले
फिर कहो कैसे उन्‍हें मंजिल मिले
जिंदगी में आ गईं अनगिनत बुराइंयां
चलती फिरती……………..
अपनी मर्जी छोड़ उसकी पर चलो
फिर जिंदगी में कुछ हासिल भी हो
करता है वो सब पर मेहरबानियां
चलती फिरती……………..
दूर हो जाएंगी सब परेशानियां
( Poem of a friend : Dev)